tag:blogger.com,1999:blog-43889903716919658692024-02-07T18:16:09.495-08:00आंबेडकरवादी मिथक यह ब्लॉग किसी समुदाय के विरोध में नही पर यह ब्लॉग आंबेडकरवादियों द्वारा फैलाये गए मिथ्या बातों और गलत इतिहास के विरोध में है ।amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-72311556134725822732016-03-25T09:42:00.001-07:002017-04-25T23:43:26.970-07:00भारत पर द्रविड़ आक्रमण (Dravidian Invasion on India)<p dir="ltr">जब में कक्षा 6 में था तब हमें पढ़ाया जाता था कि आर्य जाति कैस्पियन सागर से भारत आये थे 1500 ईसापूर्व के आस पास।<br>
मैं कई वर्षो तक इसी बात को सत्य मानता रहा। इंटरनेट की दुनिया से में 9वि कक्षा में वाकिफ हुआ था। उस समय मैं कई फोरम और ग्रुप्स में गया जहा अधिकतर लोग इतिहासकार और पुरातत्वविद थे, कुछ देशी तो कुछ विदेशी। वे सब कम्युनिस्ट, नेहरूवादी, ईसाई, मुस्मिल और कई अन्य पंथो से थे इतिहास के। इनके अनुसार तो आर्य जाति क्रूर, हिंसक, अनपढ़, गड़रिये और दुनिया की सभी बुराई से भरे हुए थे। इनका केवल एक ही मकसद था, भारत के शांतिप्रिय, सभ्य आदि अदि द्रविड़ों का नाश। मैं सोचता यदि आर्य अनपढ़ थे तो वेदों की रचना कैसे कि उन्होंने, यदि वे हिंसक थे तो वेदों में अहिंसा की बात क्यों कि? यदि वे क्रूर थे तो वेदों में ईश्वर से दोस्तों और दुश्मनो सभी की रक्षा की बात क्यों की? यदि वे चरवाहे और कबीलाई किस्म के थे तो वेदों में उन्होंने दुर्ग में रहने, रथ चलाने और राष्ट्र का ज़िक्र क्यों किया? </p>
<p dir="ltr">सिकंदर जिसने लाखो नगर जलाए और अपने रिस्तेदारो तक को मरवा दिया गद्दी के लिए वो एक महान शासक हो गया पर आर्य लोग जिनके भारत में हमले का कोई सबूत उन्हें बेवजह बर्बर बना दिया। </p>
<p dir="ltr">लोग वेदों को न तो ठीक से समझ सके और न ही आर्यो को। लोग सरस्वती नदी ढूंढते है, और ढूंढते भी कहा है? अफगानिस्तान में जबकि सरस्वती को सिंधु और यमुना के बिच में बताया गया है। इससे बड़ी मूर्खता क्या है। एक अमेरिकी इतिहासकार और लेखिका जो संस्कृत में PhD कर चुकी है लिखती है की वेदों में पशु बलि और नरबलि का उल्लेख है पर आज तक किसी वैदिक नगर में बलि के सबूत नहीं मिले। </p>
<p dir="ltr">विज्ञान अनुसार तो मनुष्य अफ्रीका से निकले और फिर पुरे विश्व में फ़ैल गए। तो भारत के मूलनिवासी द्रविड़ कैसे? वे भी तो विदेशी है।</p>
<p dir="ltr">क्या द्रविड़ों ने भारत पर हमला नहीं किया था क्या, वे जब भारत आये थे तो उनका फूल मालाओ से स्वागत तो नहीं हुआ होगा, ऑस्ट्रो एशियाटिक लोग जो की उत्तर पूर्व से भारत आये थे, वे द्रविड़ों से पहले भारत में बसे। क्या इन दोनों लोगो का युद्ध नहीं हुआ होगा? </p>
<p dir="ltr">मेरे पास कुछ प्रमाण है जो सिद्ध कर सकते है कि द्रविड़ भी आर्यो की तरह विदेश से आये थे।</p>
<p dir="ltr">द्रविड़ी भाषा और एलामी भाषा में कुछ समानताए दिखी है कुछ इतिहासकारो को जैसे डेविड मैक-अल्पाइन। <br>
एलामी सभ्यता एक अनार्य सभ्यता थी पश्चिमी ईरान की जो 2000 ईसापूर्व से लेकर फारस साम्राज्य के उदय तक थी।</p>
<p dir="ltr">द्रविड़ी भाषाए केवल दक्षिण भारत तक सिमित है, पाकिस्तान और उत्तर भारत में कुछ काबिले है जो द्रविड़ी भाषा बोलते है पर वे 1000 ईस्वी के बाद वहा बसे। </p>
<p dir="ltr">कुछ विध्वान मानते है की द्रविड़ी भाषा स्वतंत्र रूप से विकसित हुई पर कुछ लोग मानते है कि यह उत्तर अफ़्रीकी भाषाए द्रविड़ी भाषा के जनक थे। </p>
<p dir="ltr">यह मुमकिन है की भू-मध्य सागर के पास रहने वाले लोग तुर्की से होते हुए, इराक, ईरान और फिर भारत आ गए। प्राचीन समय में दक्षिण भारत में पल्लव वंश के राजाओ ने राज किया। यह पल्लव लोग ईरान से भारत आये थे, यह Parthian लोगो के वंशज थे और यह Indo-Parthian कहलाये। ईरान के होने के बावजूद यह दक्षिण भारतीयो से घुलमिल गए और इन्होंने तमिल भाषा और नाम अपना लिए। </p>
<p dir="ltr">यह ईरानी और द्रविड़ी लोगो के बिच के प्राचीन संबंध को बताता है। क्योंकि ईरान पर कई गैर एलामी सभ्यताओ ने राज किया इस कारन प्राचीन भाषाए जो द्रविड़ी और एलामी से संबंध रखती थी नष्ट हो गयी।</p>
<p dir="ltr">DNA के आधार पर भी यह साबित किया जा सकता है की द्रविड़ी विदेशी मूल के है और वे भी यूरोप से ताल्लुक रखते है। </p>
<p dir="ltr">मैं mtDNA और YDNA के जरिये द्रविड़ियो और गैर भारतीयो में संबंध दिखाऊंगा। </p>
<p dir="ltr">mtDNA एक माँ से उसकी संतानो में जाता है पर खासकर उसकी पुत्री में। हैम इसके जरिये किसी की वंशावली निकाल सकते है माँ की तरफ से। </p>
<p dir="ltr">Haplogroup U भारतीयो और यूरोपीय लोगो में पाया गया है पर भारत में इसकी मात्रा अधिक है।  Ua1 subclade यूरोप और तुर्की में अधिक पाया जाता है, subclade Haplogroup की शाखा को कहते है। भारत में Ua1 केवल केरल में पाया जाता है। </p>
<p dir="ltr">U2e Haplogroup यूरोपीय लोगो मई काफी पाया जाता है पर यह भारत में केवल दक्षिण भारतीयो में ही मिलता है। </p>
<p dir="ltr">Haplogroup R सबसे प्राचीन है और यह भारत में आई पहली महिला से फैला। Haplogroup R यूरोप और भारत दोनों में पाया जाता है पर पश्चिम भारत में सभी जातियो में सबसे अधिक जो यह दर्शाता है की पश्चिम भारतीय भारत के सबसे प्राचीनतम लोग है।</p>
<p dir="ltr">M30 Haplogroup ईरान और भारत में लगभग सभी लोगो में पाया जाता है। इसी कारन कुछ विध्वान मानते है की द्रविड़ी शायद ईरानी हो।</p>
<p dir="ltr">अब बात करते है YDNA की जो एक पुत्र को अपने पिता से मिलता है और इससे किसी की वंशावली पता कर सकते है उसके पिता की तरफ से।</p>
<p dir="ltr">Haplogroup F दुनिया के 90% व्यक्तियो में पाया जाता है और इसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी। भारत और मध्य एशिया में इसकी अधिकता है। </p>
<p dir="ltr">Haplogroup R1a1 यूरोप, ईरान और भारत में अधिक पाया जाता है। यह आंध्र प्रदेश के वाल्मीकि, कुछ आदिवासी और दक्षिण भारत की जातियो में पाया जाता है। भारत में अधिकतर यह कोकणी ब्राह्मण, बिहार के बनिए और यादवो में अधिक है। इसकी उत्पत्ति यूरोप की मानी गयी है और इसे आर्य लोगो से अधिक जोड़ा जाता है। गौर करने वाली बात है कि पंजाब में इसकी मात्रा बंगाली ब्राह्मण और कोकणी ब्राह्मणों से कम है जब की आर्य लोग पंजाब में आकर बसे थे और बाद में संपूर्ण भारत में फैले ऐसा माना जाता है। </p>
<p dir="ltr">Haplogroup H अधिकतर दक्षिण भारत में पाया जाता है पर यह पश्चिमी यूरोप और ईरान में भी मिलता है।</p>
<p dir="ltr">यह स्पेन के 7000 वर्ष पुराणी संस्कृति  Linear Pottery Culture के लोगो में भी पाया गया है जिसकी वजह से कुछ विद्वानों को लगता है कि यूरोप के प्राचीनतम लोग भारत से आये थे।</p>
<p dir="ltr">Haplogroup J2  की उत्पत्ति इराक में मानी गई है और यह पश्चिम एशिया के लोगो में अधिक पाया जाता है। भारत में यह सबसे अधिक दक्षिण भारतीयों में पाया जाता है और सभी जातियों में भी। यह भारतीय शिया मुसलमानो, पाकिस्तान के ब्राहुई और बलोच लोगो में और बंगाल के ऑस्त्रो एशियाटिक वनवासियों में भी पाया जाता है। यह उत्तर प्रदेश के SC कोल जाती में भी पाया जाता है।</p>
<p dir="ltr">Haplogroup L-M20 सर्वाधिक दक्षिण भारत में पाया जाता है खासकर कर्णाटक और तमिल नाडु में और सभी जातियों में। गुजरात में भी यह काफी मात्रा में पाया जाता है। </p>
<p dir="ltr">भारत के बाहर यह सबसे अधिक सीरिया, तुर्की, ईरान और अन्य देशों में पाया जाता है।<br></p>
<p dir="ltr">Haplogroup R2a यह भारत के काफी आम है और सभी जातियों और वनवासियों में पाया जाता है। यह उत्तर और दक्षिण के दलितों में भी काफी पाया जाता है और ब्राह्मणों में भी। </p>
<p dir="ltr">यह मध्य एशिया में भी काफी पाया जाता है और ईरान, इराक और अरब में भी। उसकी उत्पत्ति मध्य एशिया मानी गयी है।</p>
<p dir="ltr">इसके साथ ही भारत में कृषि की उत्पत्ति का श्रेय इराक के प्रवशियो को दिया जाता है। सिंधु सरस्वती सभ्यता के लोग कृषि जानते थे और शायद वे इराक के ही हो और क्योंकि उन्हें द्रविड़ मानते है तो द्रविड़ लोग इराकी हुए। बैल गाड़ी की उत्पत्ति भी इराक में हुई और यह सिंधु सरस्वती घाटी में काफी लोक प्रिय वाहन था साथ ही द्राविड़ी लोगो के जलीकट्टू से प्रेम दर्शाता है कि बैल उनके लिए काफी महत्वपूर्ण है और यह भी उन्हें अपने इराकी पुरखो से मिला हो। </p>
<p dir="ltr">भारत के सबसे प्राचीन लोग अंडमान के वनवासी है और आज के द्रविड़ इराक़, ईरान और अन्य देशों आये लोग और अंडमान के लोगो के वंशज है। </p>
<p dir="ltr">अभी DNA test के अनुसार द्राविड़ी लोग भारत के बाहर किसी भी अन्य लोगो से सम्बंधित नहीं है जो की नामुमकिन है। आखिर वे भी तो अफ्रीका से ही आये है न की वे मानवो की कोई नई नस्ल है? अपने मालिको को खुश करने हेतु काफी तोड़ मरोड़ के टेस्ट के नतीजे पेश करते है यह लोग। अंडमानी लोग बाहरी लोगो से सम्बंधित नहीं होंगे क्योंकि वे 50 हज़ार वर्षो से दुनिया से अलग तलाक रह रहे थे पर द्राविड़ी लोग नहीं क्योंकि उनके सम्बन्धी आज इराक और ईरान में रह रहे है। अभी एक नई शोद्ध से पता चला है कि आयरिश संगीत और वाद्य यंत्र द्राविड़ी संगीत और वाद्य यंत्रों जैसे ही है। कितना झूठ बोलेंगे यह लोग और कबतक? सच सामने आ ही जाता है।</p>
<p dir="ltr">जय माँ भारती।</p>
amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-26198596687723891542015-05-19T04:29:00.001-07:002015-05-20T00:53:46.405-07:00क्या सिंधु घाटी सभ्यता संथाल,असुर,मुंडा,गोंड आदि आदिवासी सभ्यता है ? (Is Indus Valley Civilization a Santhal,Munda,Asur,Gond or tribal Civilization?)<p>जो लोग यह कहते है की सिंधु घाटी के लोग वनवासी जैसे संथाल,असुर,मुंडा आदि के वंशज उनके पास अपनी बात सिद्ध करने के लिए कुछ ही सबूत है।<br>
वही पुराना आर्य आक्रमण वाली बात कहेंगे की आर्य नाम के विदेशी आक्रमणकारी आये और उन्होंने भारत के मूलनिवासियो को हराकर भगा दिया और सिंधु घाटी सभ्यता को तबाह कर दिया।</p>
<p>आज आर्य आक्रमण को कोई नहीं मानता और इसकी जगह पर आर्यों के भारत में प्रवास का नया सिधांत आया है।</p>
<p>भारत के कई बड़े बड़े इतिहासकारों ने कई मोटी मोती पुस्तके लिखे यह बात सिद्ध करने के लिए की सिंधु घाटी वनवासियों की सभ्यता थी।</p>
<p>सबूत के रूप में वे वृक्ष पूजन, धरती पूजन, पर्यावरण पूजन और अन्य परम्पराओ का उल्लेख करते है। पर यह सब विश्व की हर सभ्यता में पाएंगे।</p>
<p>इनका सबसे मुख्य सबूत है भाषा। भारत के वनवासी भारत के मूल लोग है इस बात को मध्यधारा के इतिहासकार मान्यता देते है। इसीलिए यह माना जाता है की सिंधु घाटी के लोग <br>
प्रोटो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा बोलते थे। क्युकी नस्ल विज्ञान अनुसार भारत के वनवासी ऑस्ट्रो-एशियाटिक है न की द्रविड़। </p>
<p>कई आदिवासी इतिहासकार अपनी पुस्तको में सिंधु घाटी की लिपि को पड़ने का और उसकी भाषा को समझने का दावा भी कर चुके है।</p>
<p>पहले थोड़ा भाषाविज्ञान का ज्ञान लेते है, भाषाविज्ञान अनुसार भारत के अधिकतर वनवासी ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषाए बोलते जो की द्रविड भाषाओ से अलग है द्रविड़ भाषा से उसका कोई लेना देना नहीं। अम्बेडकरवादी अक्सर वनवासियों को द्रविडो में गिनते है जो गलत है। </p>
<p>भाषाविज्ञान अनुसार अधिकतर वनवासी भाषाए दैलेक्ट है।</p>
<p>दैलेक्ट असल में उपभाषा या बोली को कहते है, दैलेक्ट में व्याकरण और लिपि की कमी होती और इसीलिए उसे भाषा का दर्जा नहीं मिलता।<br>
वनवासियों ने कभी अपनी भाषा को किसी पुस्तक में लिखकर नहीं रखा, उनकी भाषा उनके पारंपरिक लोक गीत और कथाओ द्वारा बची रही। जब भारत में अंग्रेज आए तब जाकर कई आदिवासी भाषाओ का विकास हुआ, उनके लिए लिपि तैयार हुई और व्याकरण बनाये गए। यह लिपि या तो आर्य भाषा परिवार की लिपियो की देन है और द्रविड भाषा परिवार की। वनवासियों ने कभी खुदकी स्वतंत्र लिपि नहीं बनाई जिस कारन हमें यह नहीं पता चल सकता की आज से हजारो साल पहले उनकी भाषा कैसी थी।</p>
<p>अब हमारे महान इतिहासकार जो इस बात को समर्थन करते है की सेंधव सभ्यता की भाषा और सभ्यता आदिवासियों की थी वे किस बात के बल पर यह दावा करते है?<br>
अब आप न तो सिंधु सभ्यता की लिपि पड़ नहीं सकते और आदिवासी भाषाओ की लिपि है ही नहीं तो आप कैसे कह सकते है की सिंधु घटी सभ्यता एक आदिवासी सभ्यता है?<br>
साथ ही हर इतिहासकार अलग अलग बात कहता है, कोई बोलता है की सिंधु घाटी के लोग संथाली भाषा बोलते थे,कोई बोलता है वे मुंडा लोगो की भाषा बोलते थे,कोई बोलता है वे असुरी भाषा बोलता है, कोई बोलता है वे गोंड भाषा( गोंड लोग ऑस्ट्रो-एशियाटिक है उनकी भाषा गोंडी द्रविड़ी है) और कोई कुछ और बोलता है।<br>
समय के साथ भाषा में परिवर्तन होता ही है तो इन सब भाषाओ में इन कई वर्षो में परिवर्तन आये होंगे, साथ ही सभी ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा एक ही भाषा से आई होगी, जिसे भाषाविज्ञान में प्रोटो ऑस्ट्रोएशियाटिक भाषा बोलते है।<br>
कोई इतिहासकार यह दावा क्यों नहीं करता की सिंधु सभ्यता के लोग प्रोटो ऑस्ट्रोएशियाटिक बोलते थे? यह इसीलिए क्युकी वे यह सिद्ध नहीं कर सकते क्युकी कोई यह ठीक से नहीं बता सकता की प्रोटो ऑस्ट्रोएशियाटिक कैसी थी। आज इतिहासकारों के सामने जो आधुनिक भाषाए है उसी के आधार पर वे यह दावा कर रहे है।<br>
आप हिंदी के आधार पर संस्कृत का अध्यन तो नहीं कर सकते न।</p>
<p>भाषा के अलावा लोक कथाओ का अधर भी लिया गया है।<br>
संथाली लोक कथा अनुसार वे चम्पागढ़ से आये थे, चम्पागढ़ के अलावा भी कई नगर थे जिन्हें उन्हें बाड़ की वजह से छोड़ना पडा। पर केवल इसी आधार पर आप यह नहीं कह सकते की चम्पागढ़ सिंधु घाटी सभ्यता का कोई नगर था।  चम्पागढ़ तो बंगाल में था जिसे संथाली राजाओ को दिल्ली सल्तनत के आक्रमण के कारन उसे छोड़कर जाना पडा था। मुंडाओ की भी लोक कथा है 'सोसोबोंगा ' नाम की जिसके अनुसार वे अपने पुरखो की भूमि छोड़कर असुर काबिले के इलाके में आ बसी जिस कारण दोनों में युद्ध हुआ था। <br>
गोंड लोक कथाओ अनुसार यह ब्रह्माण्ड उनके परम देवता बाबा देव ने बनाया था, उन्होंने पहले अपने बदन के मेल से कौआ बनाया जिसे उन्होंने मिट्टी लाने भेजा, कौआ मिटटी लाया और मकड़े ने जाल बूना जिसपर बाबा देव ने दुनिया बनाई। इन सब कथाओ के चित्र या मुर्तिया अब तक क्यों नहीं मिली सिंधु घाटी में ?<br>
जबकि वहा हमें योग करते लोगो की मुर्तिया मिली है और स्वस्तिक भी।</p>
<p>भारत के वनवासियों ने हजारो सालो से अपनी संस्कृति संभाल रखी है। और उनकी संस्कृति सच में महान है। वनवासी भारत के सबसे प्राचीनतम लोग है इस बात में शक नहीं पर फिर क्यों वे अन्य सभ्यताओ से खुदकी संस्कृति का मुकाबला करते है ?<br>
संथाल,मुंडा,गोंड आदि कई वनवासी राजाओ कई परम्क्रम वाले काम किये। यह जरुरी नहीं की सिंधु घाटी सभ्यता वनवासियों की हो और इससे उनकी महानता कम नहीं होगी।</p>
<p>निर्पक्ष होक विचार करे और सच पहचाने</p>
<p>जय माँ भारती ।</p>
amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-22909443019739928642014-06-16T05:49:00.002-07:002014-06-16T05:50:56.422-07:00शम्बूक वध का सच (Truth of Shambuk Vadha)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: black; color: white;"><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">वाल्मीकि रामायण में पुरुषोत्तम राम निश्चित ही सबसे बड़े आदर्श हैं, क्योंकि वाल्मीकि का ध्येय ही एक आदर्श पुरुष के चरित्र का वर्णन था, ऐसा आदर्श कि समाज के सामने हमेशा एक ऐसा चरित्र रहे कि समाज के बच्चे, वयस्क और वृद्ध सभी उस आदर्श का अनुसरण कर सकें, ताकि समाज सुखी रह सके। वाल्मीकि उस समय अर्थात आज से लगभग ६००० वर्ष पहले ( महाभारत ही आज से ५००० वर्ष पहले हुआ था) मानव के मनोविज्ञान का और उसके व्यवहार का इतना गहरा सत्य समझ गए थे कि हम मानवों को समुचित विकास के लिये कुछ आदर्शों की अनिवार्यत: आवश्यकता होती है। यदि हम बच्चों को ऊँचे आदर्श नहीं देंगे तब वे टीवी से नचैय्यों गवैय्यों को अनजाने ही अपना आदर्श बना लेंगे, उनके कपड़ों या फ़ैशन की, उनके (झूठे) खानपान की, उनकी जीवन शैली की नकल करने लगेंगे। वाल्मीकि रामायण के राम का यह आदर्श इतना सशक्त बना कि राम हिन्दू धर्म के न केवल आदर्श बने वरन वे हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि बन गए, राम की ऊँचाई से हिन्दू धर्म की ऊंचाई नापी जाने लगी । ऐसे ऊँचे आदर्श को गिराने से हिन्दू धर्म पर चोट पहुँचेगी और उसके अनुयायी अन्य धर्म को स्वीकार कर लेंगे, इस विश्वास के आधार पर हमारे शत्रुओं ने दो झूठी, किन्तु आदर्श -सी दीखने वाली घटनाएं रामायण में बहुत रोचक तथा विश्वसनीय बनाकर डालीं। घटनाओं को उसी रामायण में इतनी कुशलता से जोड़ देना कि पाठक को संदेह भी न हो और राम के पुरुषोत्तमत्व पर भी धब्बा लग जाए – सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे – यही तो प्रक्षेप या चोरी से माल डालने वाले ‘शत्रु -चोरों’ का कौशल है, जिसमें उऩ्होंने आशातीत सफ़लता पाई है। रामायण में अनेक प्रक्षेप हैं, इस समय मैं उत्तरकाण्ड के दो बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्षेपों की चर्चा करूंगा -</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">१. श्री राम ने लोकनिंदा के भय से सीता जी को, वह भी जब वे गर्भवती थीं, वन में भेज दिया था। २. श्री राम ने एक शूद्र व्यक्ति शम्बूक का वध किया था क्योंकि वह तपस्या कर रहा था !</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">सीता जी की अग्नि परीक्षा पर एक टिप्पणी उचित होगी। इस विषय को लेकर भी राम पर आक्षेप लगाए जाते हैं – राम पुरुषवादी थे, वाल्मीकि पुरुष वादी थे इसीलिये उऩ्होंने सीता जी की अग्नि परीक्षा तो करवाई, राम की कोई परीक्षा नहीं करवाई। पूरी रामायण में ऐसी एक भी घटना नहीं है कि जिस से राम के चरित्र पर तनिक सा भी संदेह हो सके, वरन ऐसी घटनाएं हैं जिनसे उनके एक पत्नीव्रत की दृढ़ता बढ़ती है। जब कि सीता जी रावण के अधिकार में थीं इसलिये उन पर कुछ भोले भाले लोग संदेह कर सकते हैं, समझदार तो नहीं करेगा, क्योंकि रामायण में पुन: कहीं कोई ऐसी घटना नहीं है कि जिससे ऐसा संदेह सीता पर हो । दृष्टव्य यह है कि यह संदेह वास्तव में सीता पर न होकर रावण के राक्षसत्व पर हो सकता है। इसलिये संदेह न तो सीता पर है और न राम पर, अतएव इसमें पुरुष के अहंकारी होने का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिये । किन्तु कुछ शत्रु हैं जो ऐसा प्रश्न उठाने के बहाने वास्तव में राम पर पुरुषवादी होने का आरोप लगाते हैं। अग्नि परीक्षा का ध्येय तो स्पष्ट है कि राम और सीता जी दोनों को लोकापवाद से बचाना। जब हम भोले भाले लोग उन पर लगे झूठे लोकापवाद को अग्निपरीक्षा के बाद भी मान सकते हैं तब बिना अग्निपरीक्षा के मानना तो बहुत ही सरल होता। कहावत है, ‘सीज़र्स वाइफ़ शुड बी बियांड डाउट’, – राजा की पत्नी के ऊपर कोई भी संदेह नहीं होना चाहिये। हमारे यहां भी मानते हैं, ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्तदेवेतरो जन: ‘ के अनुसार श्रेष्ठ लोगों के कार्य अनुकरणीय हैं। ऐसे ही आरोपों से बचने के लिये तो अग्नि परीक्षा जैसी कठोर परीक्षा की गई थी । इन तार्किक विचारों को भुलाकर जो आरोप लगाते हैं, या अग्नि परीक्षा करवाने के लिये वाल्मीकि या राम पर दोषारोपण करते हैं, वे या तो भोले भाले लोग हैं या हमारे शत्रु हैं ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">हम लोग लिखे शब्द और बचपन से सुनी बातों पर इतना अधिक विश्वास करते हैं कि उसे मान लेते हैं और उसे सिद्ध करने के लिये तर्कों का आविष्कार करने लगते हैं। और यह झूठी कहानी तो मिथिला के ही नहीं सारे भारत के लोक गीतों में अर्थात जनमानस में पैठ गई है। मिथिला में तो यह प्रचलित व्यवहार है कि वे लोग अवध क्षेत्र में अपनी कन्या का विवाह ही नहीं करते ! आज की पढ़ी लिखी महिलाएं भी राम को पुरुषवादी मानती हैं ! इस झूठी घटना को विश्वसनीय बनाने में उस शत्रु-चोर लेखक का कौशल ही इसमें सहायता करता है। कुशल साहित्यिक एक झूठ (काल्पनिक घटना या चरित्र कॊ) को विश्वसनीय बनाकर प्रस्तुत करता है – कहानी, नाटक और उपन्यास आदि में सभी साहित्यिक यही तो करते हैं। यदि उस साहित्यिक का उद्देश्य समाज का सच्चा हित हो तब वह साहित्यिक सम्मान पाता है; किन्तु यदि न हो तब उसे तिरस्कार ही मिलना चाहिये। इस झूठे प्रक्षेप में इसकी विश्वसनीयता तथा स्वीकार्यता बढ़ाने के लिये अनेक तरकीबें लगाई गई हैं; उदाहरणार्थ, प्रक्षेपित उत्तरकाण्ड में ब्राह्मणों की श्राप देने की शक्ति का रोचक वर्णन किया गया है,और उऩ्हें दान देने की महिमा और प्रशंसा भी दिलखोल कर की गई है, उऩ्हें बहुत शक्ति शाली तथा बहुत अधिक सम्माननीय बतलाया गया है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">बहुत से पाठक और यहां तक कि विद्वान भी श्री राम के शम्बूक वध तथा सीताजी के वनवास की घटनाओं को सिद्ध करने के लिये तरह तरह के तर्क दे रहे हैं। जब यह दोनों घटनाएं श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र तथा कार्यों के साथ तनिक भी मेल नहीं खातीं और न महर्षि वाल्मीकि के घोषित उद्देश्यों से मेल खाती हैं, तब भी हम क्यों उन पर विश्वास कर लेते हैं और उल्टे सीधे तर्कों द्वारा सिद्ध करते रहते हैं। एक विद्वान ने तो मुझे यह तर्क भी दे दिया कि चूंकि उत्तर काण्ड की घटना राम के पहले वर्णित चरित्र से मेल नहीं खाती इसीलिये तो राम का चरित्र वास्तविक लगता है, आखिर हम आयु के साथ बदलते तो हैं; उनके चरित्र में यह असंगति ( इनकन्सिस्टैन्सी) ही तो लेखक की शक्ति है। मैं तो यह सुनकर अवाक रह गया था; मुझे लगा कि यह तो तर्क से भी परे है, यह उनके अंदर पड़े पुरुष के परस्त्री गमन के प्रति अटूट विश्वास पर आधारित है, अर्थात उऩ्हें और इसलिये राम को भी शतप्रतिशत विश्वास है कि रावण ने अवश्य ही वह दुष्कृत्य सीता जी के साथ किया होगा। अतएव राम ने सीता को अवश्य ही वनवास दिया होगा। ऐसा विश्वास बहुत अधिक आश्चर्य की बात तो है, और यह भी दर्शाती है कि हमारी सोच अवैज्ञानिक है, हमने उचित प्रश्न करना और समाधान सोचना छोड़ दिया है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">इसके अपवादस्वरूप आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी ऐसी घटनाओं पर बहुत ही सधे व्यंग्य करते हैं, उसके लिये उपयुक्त ताने मारते हैं। भवभूति ने अपनी रचना की दृष्टि को बतलाने के लिये लिखा था कि वे राम की समग्रता को अभिव्यक्त करना चाहते हैं, मानों कि वाल्मीकि अपनी दृष्टि के अनुकूल राम को समग्रता में अभिव्यक्त नहीं कर पाए थे । यह भवभूति का अहंकार या दुस्साहस तो है, इसलिये इस पर शास्त्री जी द्वारा व्यंग्य करना ही उचित है। शास्त्रीजी स्पष्ट भी कह देते हैं, “ चारित्रिक समग्रता को ऐसे नहीं कूता जा सकता है। ‘महावीर’ (भवभूति रचित ‘महावीर चरित’ और ‘उत्तर रामचरित’) राम का पूरा पर्याय नहीं हो सकता। भवभूति कुछ अधिक विशेषण उछालते हैं तो इससे राम अधिक विशिष्ट कहीं नहीं उभर पाते । शब्दाडम्बर वीरत्व पर हावी हो भी जाए, ऐसे राम की आंशिक समग्रता मर्म को मथती नहीं है।” सीता के राम द्वारा वनवास दिये जाने की घटना पर शास्त्री जी फ़िर व्यंग्य करते हैं, “ यह सीता क्या कोई निरी वस्तु है जिसे राम जब चाहें रखें, जब चाहें छोड़ दें ? और जब वाल्मीकि के (पुन: झूठा और प्रक्षेपित) राम कैकेयी माता से कहते हैं कि वे तो उनके कहने मात्र से सीता को और अपने प्राणों को भरत के लिये दे सकते हैं। तब शास्त्रीजी व्यंग्य करते हैं, राम सीता को अपने पास रखें या भरत को दे दें! यह कैसी निरपेक्षता है ? सर्वस्व त्याग इतना निर्मम हो सकता है ? पितृभक्ति या सौतेली माँ ही सही किसी माँ के प्रति अन्धभक्ति इस हद तक अन्धी हो सकती है ? और . . .इस तरह वाल्मीकि के (प्रक्षेपित) राम तो सीता को दुनिय़ा का सस्ते दामों बिका माल बना देते हैं. . . . यदि राम ऐसा कहते हैं तो सीता ज़रूर पिंजरे की मैना होगी !” यह व्यंग्य स्पष्ट है क्योंकि सीता जी शेष चरित्र में शक्तिशाली, आत्मविश्वासी तथा आत्मसम्मानी हैं। अर्थात ऐसे राम वाल्मीकि के आदर्श तो नहीं हो सकते, अर्थात वाल्मीकि ने ऐसा रामायण में नहीं कहा, अर्थात यह वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में बाहर से डाला गया है, प्रक्षेप है।. . .फ़िर आगे शास्त्री जी भवभूति के प्रयास पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं, “ राम की समग्रता की पूरी परख ‘साइको ऎनालिसिस मात्र मनोविश्लेषण के सिद्धान्तो के आधार पर सम्भव नहीं है।” इस तरह यद्यपि शास्त्री जी भवभूति को व्यंग्य में करारी फ़टकार देते हैं। यह तो सभी पाठक मानते हैं कि भवभूति के मनोविश्लेषण के कारण वे उनके वर्णन को बहुत रुचि के साथ पढ़ते हैं, अर्थात वास्तव में भवभूति ने वाल्मीकि के आदर्श चरित्रों को उनके आदर्शों की कीमत पर ‘पापुलर’ बना दिया। यह अधिकार तो साहित्यिक को नहीं है कि वह अन्य साहित्यिक द्वारा रचे चरित्रों को उलट दे और इस तरह उलट दे कि समाज का अहित हो ! वैसे आजकल अनेकानेक साहित्यिक रामायण तथा महाभारत के चरित्रों को लेकर उनका विकास अपनी विचारधारा के अनुसार, विशेषकर पूंज़ीवादी या सामयवादी सोच के अनुसार बदल देते हैं। साहित्यकारों को पूरा अधिकार है कि वे मनचाही रचना करें, किन्तु अन्य की रचना के ध्येयों के विरोध में या अपनी विचारधारा के प्रचार हेतु उसके चरित्रों को भ्रष्ट करने का अधिकार तो उनका नहीं है। यदि वे ऐसा करते हैं तो वास्तव में साहित्यकार कहलाने का अधिकार उऩ्हें नहीं मिलना चाहिये; कम से कम हमें ऐसे तथाकथित साहित्यकारों से बचना तो चाहिये ही।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया जा रहा है कि वाल्मीकि रामायण का पूरा उत्तर काण्ड ही किसी अन्य साहित्यिक ने शत्रुता वश चोरी से डाला है, यह चोरी उन दिनों बहुत ही सरल थी जब मुद्रण व्यवस्था ही नहीं थी, सारा साहित्य हाथों द्वारा ही लिखा जाता था। मूल लेखक एक प्रति लिखता था और अन्य प्रतियां हाथों द्वारा ही लिखी या लिखवाई जाती थीं। इसलिये इस महत्वपूर्ण विषय पर तर्क संगत विचार करना अवश्यक है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">पहला प्रमाण, वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का समापन पढ़ने से यह तो एकदम स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकि रामायण वहीं पर समाप्त हो जाती है। वहां लिखा है कि राज्याभिषेक के पश्चात श्री राम ने ११,००० वर्ष राज्य किया। अभी इस विवाद में न पड़ें कि वे ११००० वर्ष राज्य कैसे कर सकते थे । कवि द्वारा इसे उनकी अतिशयोक्ति समझें – उऩ्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया, क्योंकि शब्द ‘हजारों’ का आधिक्य दर्शाने के लिये उपयोग बहुत प्रचलित था और अभी भी ऐसे उपयोग के हजारों उदाहरण मिलते है। इस एक वाक्य से, ‘कि ११००० वर्ष सुखपूर्वक राज्य किया’, ही स्पष्ट है कि रामायण का समापन हो गया; अब और कोई महत्वपूर्ण या दुखद घटना की बात नहीं होना है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">दूसरा, युद्ध काण्ड के समापन पर रामायण पाठ की फ़लश्रुति आ जाती है – ‘जो भी इस रामायण का पाठ या श्रवण करेगा उसे बहुत पुण्य मिलेगा’ इत्यादि। जब नारद जी वाल्मीकि को राम कथा सुनाते हैं तब वहां भी फ़लश्रुति है, किसी अन्य काण्ड के अंत में फ़लश्रुति नहीं है। पारंपरिक फ़लश्रुति ग्रन्थों के अंत में आती हैं। अर्थात वाल्मीकि रामायण का समापन युद्धकाण्ड के बाद हो गया। तब इसके बाद उत्तरकाण्ड के लिखे जाने की बात ही नहीं बनती। इसके विरोध में भी तर्क दिये जाते हैं कि फ़लश्रुति लिखने की परंपरा वाल्मीकि के काल में नहीं थी, अत: यह प्रक्षेप है। जब रामायण विश्व का प्रथम काव्य है तब इसमें परम्परा की बात करना ही ऐसे व्यक्ति की नियत पर संदेह पैदा करता है। वे तो परम्परा स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। जब वाल्मीकि का ध्येय ही एक आदर्श चरित्र प्रस्तुत करना था तब फ़लश्रुति तो वहां स्वाभाविक लगती है। खैर, यदि हम तर्क के लिये मान भी लें कि फ़लश्रुति बाद में लिखी गई, तब भी यह तो निश्चित है कि वह फ़लश्रुति इस उत्तर काण्ड के प्रक्षेप के पहले लिखी गई थी। और यदि फ़लश्रुति उत्तरकाण्ड के प्रक्षेप के बाद लिखी गई होती तब तो उसे उत्तर काण्ड के बाद ही होना था, न कि युद्ध काण्ड के पश्चात ! अच्छा हुआ कि वह चोर शत्रु युद्धकाण्ड के अंत से ‘फ़लश्रुति’ निकालना भूल गया, वरना उसके चोरी की विश्वसनीयता और बढ़ जाती। चोर अपनी चोरी के हमेशा कुछ न कुछ निशान छोड़ ही देता है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">तीसरा, उत्तरकाण्ड में जो वर्णन है वह अधिकतर जादू या वीभत्स घटनाओं के वर्णन के कारण अत्यंत रुचिकर होते हुए भी नितान्त अविश्वसनीय है, जो रामायण की पूरी रचना से बिलकुल मेल नहीं खाता। पहले तो उसमें रावण ही नहीं वरन समस्त राक्षस जाति का इतिहास है। जब मूल रामायण मुख्यत: राजा दशरथ के जीवन से ही प्रारंभ होती है न कि इक्ष्वाकु वंश या ककुत्स्थ से, और रावण के जीवन का मूल रामायण में पर्याप्त वर्णन है तब राक्षसों के पूरे इतिहास के वर्णन का रामायण में औचित्य ही नहीं बनता। मूल रामायण के ‘बाक्स आफ़िस हिट’ बनने के बाद, फ़िल्म के ‘सीक्वैल’ की तरह उनके विषय में अतार्किक और जादुई (विज्ञान गल्प या फ़ैन्टैसी कथा?) घटनाओं का वर्णन कर पहले तो पाठकों को आकर्षित करना, फ़िर राम की उदात्तता या आदर्श पर चोट करना इस झूठे प्रक्षेप का प्रमुख ध्येय था । एतदर्थ उऩ्होंने दो संवेदनशील विषय चुने – एक, चरित्रवान और गर्भवती स्त्री पर अत्याचार और दूसरा, निर्दोष तपस्वी शूद्र की हत्या, वह भी स्वयं राजा राम के द्वारा।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">चौथा, प्रक्षेपित अर्थात चोरी से डाले गए उत्तर काण्ड में कुछ वर्णन ऐसे हैं जो मूल रामायण के उद्देश्यों से न केवल मेल नहीं खाते, वरन उनका विरोध करते हैं । उदाहरण के लिये उत्तर काण्ड में वर्णित है कि, ‘श्री राम प्रतिदिन आधा दिन राज्य कार्य करने के बाद एक अत्यंत सुन्दर बाग में आते हैं, जहां गायिकाएं तथा नर्तकियां उनका तथा सीता जी का मनोरंजन करती हैं। वहां राम मदिरा पान करते हैं, और तो और वे अपने हाथों से सीता जी को भी मदिरा पान कराते हैं, और नर्तकियां आदि भी मदिरा पान कर मद से मस्त होती हैं। और मद से वे जितनी प्रभावित होती हैं, राम के वे उतने ही निकट नृत्य करती हैं !’ रामायण के किसी भी समझदार पाठक के लिये इतना वर्णन ही इस उत्तर काण्ड को प्रक्षेप अर्थात ‘चोरी’ समझने के लिये पर्याप्त है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">पाँचवां, जब राजा से उत्तम न्याय की अपेक्षा हो और वह ऐसा न्याय कर दे जो नितान्त अन्याय हो तब उस राजा को कोई भी मूर्ख के अतिरिक्त क्या मानेगा ! न्याय के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि दोनों पक्षों, आरोपी तथा अभियुक्त, को सुना जाए। इस राजा ने तो एक भी पक्ष को नहीं सुना। एक पक्ष को विश्वसनीय सूत्रों द्वारा सुनने को भी नियमों के अनुसार’हियरसे’ अर्थात ‘कही सुनी बात’ माना जाता है, उसे प्रमाण नहीं माना जात। यह न्यायिक पद्धति तो नहीं कि अभियुक्त को न केवल आरोप लगाने वाले से प्रश्न करने का अवसर न दिया जाए, वरन उसे भी सुना न जाए । प्रश्न करने पर वह आरोपकर्ता ही अपनी गलती स्वीकार कर सकता था – ‘ महाराज जी उस रात्रि तो मैं अपने पूरे होश में नहीं था, या मुझे बहुत ही अधिक क्रोध था।’ यह न भी होता तब भी न्याय प्रक्रिया की मांग है कि अभियुक्त को आरोपी से प्रश्न करने का अधिकार तो मिलना ही चाहिये ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">छठवां, वाल्मीकि रामायण में अहल्या को पता लग जाता है कि उसका भोग करने वाला उसके पति के वेश में कोई और है तब भी वह स्वयं उस भोग मेंपूरा सहयोग देती है। इसीलिये गौतम ऋषि उसे पत्थर बनने का श्राप देते हैं। जो राम निश्चित रूप से दोषी अहल्या को उनके पति की श्राप से मुक्त कर सकता है, क्या वही राम जानते हुए कि उसकी पत्नी निर्दोष है एक झूठी अफ़वाह के आधार पर उसे वन में निष्कासित कर सकता है, कदापि नहीं, हां, शत्रु द्वारा रचित झूठा प्रक्षेपित अहंकारी और पुरुषवादी राम तो ऐसा ही करेगा !</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">सातवां, सीता जी की कठोर अग्नि परीक्षा हो चुकी थी जिसका एकमात्र उद्देश्य यही था कि जनता सीता के निर्दोष होने पर संदेह ही न करे, और अग्निदेव ने सीता जी को पूर्ण रूप से निर्दोष सिद्ध किया था। अग्निपरीक्षा सरीखी अनोखी और मर्मान्तक घटना का प्रचार तो स्वयं ही हो गया होगा, अन्यथा राम का कर्तव्य बनता था कि वे इस सत्य का प्रचार करवाते क्योंकि उनके पास एक से एक विश्वसनीय साक्षी थे । जब असत्य जनसमाज मैं फ़ैला हो तब असत्य का विरोध तथा सत्य का प्रचार करना भी राजा का और राज्य का महत्वपूर्ण कर्तव्य होता है, न कि अफ़वाहों से डरकर अन्याय करना ! जब न्यायाधीश को मालूम हो कि ‘सुप्रीम कोर्ट’ (अग्नि परीक्षा) ने एक निर्णय दे दिया है तब छोटे न्यायालय के लिये उसको मान्यता देना अनिवार्य होता है, अन्यथा वह सर्वोच्च न्यायालय की मानहानि बन जाता है। अग्निदेव की ऐसी मानहानि करने वाला झूठे प्रक्षेपवाला राम तो महामूर्ख न्यायाधीश है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">आठवां, न्यायाधीश को इतना तो स्पष्ट करवाना ही था कि कहीं वह ‘धोबी’ अग्नि परीक्षा के अज्ञान में अपनी बात तो नहीं कह गया, इस झूठ- प्रक्षेपित राम ने वह भी नहीं करवाया । उत्तर रामचरित में यह भी इंगित किया गया है कि सीता जी वन में जाने को सहर्ष तैयार हो जातीं यदि राम उऩ्हें यह आदर्श समझाते; तब भी राम सीता से वनवास का इशारा भी नहीं करते। अर्थात भवभूति के राम या तो राजा बनने के योग्य नहीं हैं या घोर पुरुषवादी हैं, अहंकारी हैं,स्वकेन्द्रित हैं, मूर्ख हैं। इस कथा से भवभूति का उद्देश्य यही दिखता है, जिसमें उऩ्हें करुणरस सिद्धि के फ़लस्वरूप आशातीत सफ़लता मिली। करुण रस में डूबा व्यक्ति तर्क नहीं करता ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">नौवां, सामान्यतया जो भी तर्क सीता- वनवास के पक्ष में दिये जाते हैं वे भवभूति के उत्तर रामचरित से लिये गए दिखते हैं, क्योंकि न केवल वह बहुत ही प्रभावी है वरन उसका प्रचार अंग्रेजो के शासनकाल में और ‘समाजवादी स्वतंत्र भारत में भी खूब किया गया और उसे लोकप्रिय नाटक बनाया गया। भावुकता मानव का एक संवेदनशील गुण है, किन्तु अधिक भावुकता तो मनुष्य की बुद्धि पर ग्रहण लगा देती है जो एक राजा के लिये नितांत अवांछनीय है। राम को भवभूति ने इतना ऊँचा भावुक आदर्श पुरुष बना दिया है कि जब राम लक्ष्मण को सीता जी को वन में छोड़ने का आदेश देते हैं तब लक्ष्मण उऩ्हें अग्नि परीक्षा का स्मरण कराते हैं; उस पर राम कहते हैं कि वे प्रजा के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर रहे हैं क्योंकि राजा और उसके कार्यों के प्रति प्रजा में तनिक भी संदेह नहीं होना चाहियॆ, और इसके लिये वे बड़ा से बड़ा त्याग करने को तत्पर हैं। एक तो ऐसी सोच कि ‘प्रजा में तनिक भी संदेह नहीं होना चाहियॆ’ अव्यावहारिक है और गलत है। अज्ञान में, या भोलेपन में लोगों का संदेह करना बहुत स्वाभाविक है। दूसरे, यदि संदेह हैं, तब उऩ्हें संदेह दूर करना चाहिये। किन्तु प्रक्षेपित राम के इस त्याग से संदेह तो दूर नहीं हुआ, वरन सीता का दोषी होना सिद्ध हो गया। लोक में राजा या उसके कार्यों के प्रति तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिये, किन्तु क्या उस संदेह को दूर करने के लिये जनता को अग्निपरीक्षा का सत्य ज्ञान देना उचित तथा पर्याप्त नहीं होता ! वह तो उनका परम कर्तव्य बनता था। झूठ-प्रक्षेपित राजा राम तो बार बार मूर्ख ही सिद्ध होता है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">भवभूति का किसी काल्पनिक घटना को विश्वसनीय बनाने की कला का यह उदाहरण इतना सशक्त है कि अच्छे से अच्छे विद्वान भी इसके बहाव में बहकर उन पर विश्वास करने लग जाते हैं। इतने ऊँचे (?) भावुक आदर्श राजा, भवभूति जैसे करुण रस के सिद्ध कवि द्वारा वर्णित तो साहित्य में ही हो सकते हैं, जीवन में नहीं। यथार्थ के जीवन में ऐसे आदर्शवादी राम जब न्यायाधीश की पीठ पर आसीन हैं तब वे अपने आदर्शों के अनुरूप निर्णय तो ले सकते हैं किन्तु उसके लिये उऩ्हें न्यायिक प्रक्रिया पूरी करना ही चाहिये। भवभूति के प्रक्षेपित राम तो बिना किसी पक्ष को सुने केवल सुनी हुई बात के आधार पर प्रथम सुबह ही सीता को चुपचाप त्याग देते हैं। मंत्रिमण्डल न सही, अपने गुरु वशिष्ठ से सलाह ले सकते थे, और इसमें इतनी शीघ्रता की आवश्यकता भी समझ में नहीं आती, सिवाय इसके कि झूठ- प्रक्षेपित राम मदक्की थे।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">दसवां, यह प्रश्न मात्र उनके व्यक्तिगत जीवन का नहीं था, इसमें प्रजा के हित का प्रश्न था। कोई भी यह कैसे मान सकता है कि राजा की किसी भी नीति से या कर्म का एक व्यक्ति भी विरोध नहीं करेगा ! हजारों तरह के व्यक्ति होते हैं, उनकी हजारों तरह की सोच होती है। अन्य जनता जिसे ‘अग्नि परीक्षा’ याद है, राम द्वारा सीता जी को वनवास दिये गए इस त्याग से क्या निष्कर्ष निकालेगी ? क्या उसे दुख नहीं होगा कि उनके आदर्श राजा राम ने अपनी निर्दोष पत्नी को एक अफ़वाह के आधार पर या बिना किसी कारण के वनवास दे दिया ? वे इस घटना से क्या सीखेंगे ? पत्नियों की क्या दशा होगी? क्या वे ऐसे राजा के राज्य में अपने को सुरक्षित अनुभव करेंगी? क्या कोई भी मनुष्य किसी भी बात पर राम का उदाहरण देकर अपनी पत्नी को निष्कासित नहीं कर सकेगा ? अधिकांश जनता ने तो राम पर कोई भी आरोप नहीं लगया था, तब उनमें से किसीने क्यों नहीं इसका प्रतिवाद किया? यह चूक फ़िर उस शत्रु से हो गई जिसने प्रक्षेप डाला था। ऐसे अव्यावहारिक आदर्श के साथ तो कोई भी राज्य नहीं कर सकता, अत: राम राजा बनने के योग्य नहीं थे – यही तो उद्देश्य है उन शत्रु साहित्यिक चोरों का ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">ग्यारहवां, यदि सीता को लोकनिंदा के भय से त्यागा था तब जनता में उसकी घोषणा करवाना भी तो आवश्यक होता, ताकि जनता उससे कुछ सीखे। कम से कम उस धोबी को तो संदेश पहुँचाना चाहिये था जिसके आरोप के कारण उऩ्होंने इतना बड़ा त्याग किया था। ऐसा भी राम ने नहीं किया, उऩ्होंने छलपूर्वक चुपचाप सीता जी को वन भेज दिया, जो और भी घृणित था। ऐसा झूठ- प्रक्षेपित न्यायाधीश राम तो पुरुष के अहंकार में रहने वाला, सती स्त्री को यंत्रणा देने वाला तथा मूर्ख और अतिभावुक सिद्ध होता है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">बारहवां, यदि यह वर्णन राम के शेष चरित्र से मेल खाता तो भी हम इस संदेश को मान सकते थे, किन्तु न केवल यह मेल नहीं खाता वरन उनके छ काण्डों के राम से पूरा का पूरा ही विरोध करता है । यही तो प्रक्षेप डालने वाले शत्रु का उद्देश्य था।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">तेरहवां, लिखने के पूर्व वाल्मीकि को श्री राम की कथा ज्ञात नहीं थी। वह तो वाल्मीकि के ही अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने नारद जी को उनके पास श्री राम की कथा सुनाने के लिये भेजा था। नारद मुनि जो कथा वाल्मीकि को सुनाते हैं वह महर्षि वाल्मीकि जी ने बाल काण्ड में ही लिख दी है। उस कथा में ‘उत्तर काण्ड नहीं है। तब वाल्मीकि कैसे अपनी रामायण में उत्तर काण्ड लिख सकते हैं ! अर्थात यह उत्तर काण्ड प्रक्षेप है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">चौदहवां,महर्षि व्यास के महाभारत में भी रामायण है, और उसमें भी उत्तर काण्ड नहीं है। अर्थात यह प्रक्षेप महाभारत की रचना के बाद डाला गया। कब डाला गया ?</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">पन्द्रहवां, चरित्रवान स्त्री पर अत्याचार की आधारभूमि तो चोरों ने पद्मपुराण आदि अनेक ग्रन्थों में भवभूति के पहले ही तैयार कर दी थी । मैं भवभूति का उदाहरण इसलिये ले रहा हूं क्योंकि वह बहुत प्रभावी है, लोकप्रिय है, और संस्कृत के स्नातकोत्तर शिक्षा के पाठ्यक्रम में अंग्रेजों के समय से ही पढ़ाया जाता रहा है। भवभूति ने अद्भुत कल्पना तथा सृजनशीलता का दुरुपयोग करते हुए ‘उत्तर रामचरित’ नाटक लिखा। अपने गलत उद्देश्य को विश्वसनीय बनाने के लिये एक बहुत ही रससिक्त और रोचक रचना की जाती है। भवभूति का उत्तररामचरित ऐसा ही ग्रन्थ है। इसका सिद्धान्तन तो विरोध नहीं किया जा सकता क्योंकि यह तो साहित्यकार का जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह रचना करने के लिये स्वतंत्र है। किन्तु हमें उसके कुप्रचारात्मक दृष्टिकोण से सावधान तो रहना ही चाहिये। इस नाटक में करुणरस के सिद्ध कवि भवभूति ने सीता जी को इतनी करुणाजनक स्थिति में दर्शाया है कि पाठक आँसू बहा बहाकर भवभूति की प्रशंसा करे । इसके लिये उऩ्होंने राम के द्वारा गर्भवती सीता को वन में निष्कासित किया क्योंकि एक धोबी (या अनेक जन) उन पर लांछन लगा रहे थे। और देखिये उनका कौशल कि राम को बदनाम करने के ध्येय को छिपाने के लिये राम को एक तरह से लोक का सम्मान करने वाला राजा घोषित कर दिया, तथा सबसे बड़ा त्याग करने वाला भी। प्रत्यक्ष में उऩ्होंने राम की बुराई नहीं की, किन्तु अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावी रूप से राम को पुरुषवादी, मूर्ख और स्त्री का अपमान करने वाला सिद्ध कर दिया। अरे भाई, जो राजा अपनी पत्नी को सती जानते हुए और वह भी गर्भवती अवस्था में मात्र कुछ अज्ञानी लोगों के गलत विचारों के ‘सम्मान’ के लिये जंगल भेज दे, वह स्त्री जति का अपमान करने वाला पुरुषवादी या मूर्ख नहीं तो और क्या हो सकता है ! यदि वे संतान के जन्म तक रुक नहीं सकते थे तो गुरु से या अन्य मंत्रियों से सलाह तो ले सकते थे । वैसे, तुलसीकृत रामचरित मानस में दो बालकों का जन्म अयोध्या के महलों में ही होता है, जिसका वर्णन मात्र एक चौपाई में किया गया है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">भवभूति के पहले भी राम की अनेक कथाओं में, साहित्यिक कृतियों और पुराणों में यह ‘झूठी घटना’ मिलती है, विशेषकर पम्म पुराण में और पद्मपुराण में। और मजे की बात यह कि व्यास जी ने महाभारत की रचना की और १८ पुराणों की भी। महाभारत में जो रामकथा वर्णित है उसमें तो सीता वनवास या शम्बूक वध की छाया भी नहीं है; और पद्मपुराण में यह दोनों कथाएं हैं। अर्थात पुराणों में भी भयंकर प्रक्षेप हैं। और इऩ्ही पुराणों के प्रक्षेपों के आधार पर कुछ साहित्यिकों ने ‘सीता के वनवास’ वाली कथा को लिया है। फ़िर भी यह शोध का विषय तो है कि ऐसा झूठ- प्रक्षेप पहली बार किसने और कहां डाला ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">वाल्मीकि रामायण को आधार बनाकर सैकड़ों रचनाएं लिखी गई हैं, जिनमें मनमाना परिवर्तन किया गया है। बीसवीं के प्रारंभ तक वाल्मीकि रामयण के भारत में कम से कम चार भिन्न संस्करण चल रहे थे – उत्तरी, पूर्वी, दक्षिणी तथा पश्चिमी संस्करण, किन्तु इनमें विशेष महत्वपूर्ण अन्तर नहीं हैं।। बौद्ध रामयण ‘दशरथ जातक कथा के रूप में आती है, इसमें दशरथ की पुत्री भी है, ‘शान्ता’, जिससे दशरथ के ही पुत्र राम, अनेक घटनाओं के बाद, विवाह करते हैं – बौद्ध रामायण का उद्देश्य तो स्पष्ट ही झूठी घटना के द्वारा राम को कलंकित करना है,क्योंकि पुराणों के अनुसार शान्ता राजा रोमपाद की पुत्री है, जिसका विवाह वे ऋषि ऋष्यश्रंग से करते हैं। एक जैन रामायण भी है जिसमें राम अंत में जैन मुनि बन जाते हैं और सीता भी कलंकित होते हुए और अपने पर हुए दुर्व्यवहार के कारण निराश होकर जैन साध्वी बन जाती हैं। इसमें न तो स्वर्ण मृग की घटना है और न अश्वमेध यज्ञ की, क्योंकि ये हिंसात्मक घटनाएं हैं, जैन रामायण का उद्देश्य तो हिदू धर्म की मनगढ़न्त बुराइयां गढ़कर जैन धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करना है। राम को जैन बनने पर मोक्ष मिल जाता है किन्तु सीता को जैन साध्वी बनने के बाद भी मोक्ष नहीं मिलता, क्योंकि जैन धर्म में नारी को मोक्ष मिल ही नहीं सकता। सीता को मोक्ष के लिये अगले किसी जन्म में पुरुष का जन्म लेना पड़ेगा।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">पद्म पुराण की रामायण में भी विचित्र घटनाए हैं। पद्मपुराण में इन घटनाओं के तीन रूप हैं; एक में तो राम ११००० वर्ष सुखपूर्वक राज्य करने के बाद सीता को वनवास देते हैं ! इसके उत्तर खण्ड में वर्णन है जिसमें एक सुन्दर बाग का दृश्य है जिसमें नर्तकियां नृत्य कर रही हैं, और मदिरा पान चल रहा है जिसमें राम स्वयं अपने हाथ से सीता जी को मदिरा पिला रहे हैं ! नर्तकियां मस्त होकर राम के निकट आ आकर नृत्य करती हैं। राम सीता जी से पूछते हैं कि उनकी दोहड़ क्या है, अर्थात एक गर्भवती की उत्कट लालसा क्या है? सीता जी कहती हैं के वे एक दिन के लिये किसी ऋषि के आश्रम जाना चाहती हैं।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">दूसरे पद्मपुराण में वर्णित उत्तर काण्ड को ग्रन्थकार ने इस सीता – वनवास घटना को स्वयं ही कल्पित घोषित कर दिया है। और तीसरे रूप में जो उत्तरखण्ड है उसमें यह घटना न होकर, श्री राम और अगस्त्यमुनि के संवाद हैं। अर्थात पद्मपुराण के एक रूप में सीता जी के वनवास की घटना प्रक्षेप ही है क्योंकि पद्मपुराण का घोषित उद्देश्य है ‘विष्णु के गुण गान’। कालीदास के रघुवंश में राम सीता को वनवास देते हैं, किन्तु वह वर्णन इतना संक्षेप में है कि उस पर भी विश्वास नहीं होता।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">भवभूति ने इस कथा को एक स्वतंत्र नाटक के रूप में प्रस्तुत किया। किन्तु उसकी रचना में उसका उद्देश्य तो स्पष्ट दिखता है। किन्तु यह भी हो सकता है कि वे अपने दो आदर्शवादी नाटकों की असफ़लता के बाद यथार्थवाद पर आ गए हों और अपने काल के किसी राजा का चरित्र का सत्य उऩ्होंने बहुत ही प्रभावी शैली में अभिव्यक्त किया हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उऩ्हें एक स्वतंत्र नाटक लिखना था, न कि स्थापित राम कथा के साथ खिलवाड़ करते । किन्तु उऩ्होंने उत्तर रामचरित में राम की मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि पर कलंक लगाया, वह कार्य निंदनीय है, और इसलिये वे उच्च कोटि के साहित्यकार नहीं माने जा सकते ।।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">तुलसी की गीतावली के उत्तरकाण्ड (पद २५) में राम सोचते हैं कि जो १२ वर्ष की अतिरिक्त आयु उऩ्हें उनके पिताश्री के नियत समय के १२ वर्ष पूर्व असमय देहान्त के फ़लस्वरूप मिली है, उसमें वे सीता जी को साथ रखना उचित नहीं समझते, अतएव उऩ्हें वन में वाल्मीकि के आश्रम में भेज देते हैं। यह भी दृष्टव्य है कि सर्वप्रथम यह वर्णन बौद्ध ‘दशरथ जातक कथा’ में मिलता है, यह भयंकर कुतर्क ही लगता है। पहले तो दशरथ जी की मृत्यु बहुत स्वाभाविक थी -प्राणों से भी प्रिय पुत्र के वियोग में मृत्यु होना बहुत स्वाभाविक है। यदि अस्वाभाविक थी, और भाग्य के अनुसार उस समय मृत्यु नहीं लिखी थी तो फ़िर मृत्यु को नहीं ही होना चाहिये था। फ़िर ऐसा कोई भी मान्य नियम नहीं है कि पुत्र को पिता की आयु मिले, वह भी बिना माँगे ! दूसरा, यदि मिल भी गई तब उसमें पत्नी के साथ रहने में कोई दोष कैसे हो सकता है ! यह इतना भयंकर कुतर्क है कि मुझे विश्वास है कि प्रकाण्ड पण्डित शिरोमणि संत तुलसी दास ऐसा सोच भी नहीं सकते थे, विशेषकर इसलिये भी कि जिस विचार को रामचरित मानस में वे पूर्णरूप से अस्वीकार कर चुके थे, उसे वे एक अन्य ग्रन्थ में क्यों लाएंगे ! क्या उऩ्हें स्वयं अपनी विचार शक्ति तथा ज्ञान पर पूरा विश्वास नहीं था ! अत: गीतावली के उत्तरकाण्ड का यह वर्णन भी एक प्रक्षेप ही है ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">भवभूति के पहले नाटक ‘महावीर चरित’ को सम्मान नहीं मिला था; उसमें राम की लगभग वही कथा है जो वाल्मीकि में है। राम उसमें वाल्मीकि रामायण के समान ही एक आदर्श पुरुष हैं, और उसमें उऩ्होंने कुछ नया अवश्य किया है, उदारणार्थ रावण के मंत्री माल्यवान की ‘स्ट्रैटजीज़’या रणनीतियों को विस्तार दिया है। महावीर चरित वाल्मीकि रामायण के चरित्रों के मानसिक विकास को लक्ष्य बनाकर लिखा गया था ।और महावीर चरित में भवभूति नाटक का समापन राज्याभिषेक के बाद कर देते हैं, उसमें सीता वनवास नहीं है। किन्तु वह भाषा तथा कवित्व की दृष्टि से कमजोर था और इसलिये उसकी प्रशंसा नहीं हुई। उनका दूसरा नाटक ‘मालतीमाधव’ भी आदर्शात्मक है। इन दोनों नाटकों को सफ़लता न मिलने के कारण संभवत: भवभूति ने ‘कान्ट्रोवर्शियल’ (विवादस्पद) बनना उचित समझा, और इसमें पद्मपुराण ने उनकी सहायता की। यदि भवभूति को यथार्थवाद पर ही आना था तो किसी समकालीन चरित्र को चुनना था। ऐसा प्रतीत होता है कि भवभूति को अपने समय में उऩ्हें जितनी प्रसिद्धि की आशा थी वह उऩ्हें नहीं मिली, और वे अहंकारी तो थे क्योंकि वे एक स्थान पर लिखते हैं कि उनके समक्ष देवी सरस्वती एक आज्ञाकारी सेविका की तरह उपस्थित रहती हैं। और यह भी लिखा है कि यद्यपि उऩ्हें उचित सम्मान नहीं मिला है किन्तु एक दिन आएगा जब विश्व में कहीं न कहीं उऩ्हें सम्मान मिलेगा। और सम्मान उऩ्हें गुलाम भारत में मिला और स्वतंत्र भारत में भी मिल रहा है। दिल्ली में किसी भी संस्कृत साहित्यकार के नाम पर कोई भी प्रमुख मार्ग या रोड नहीं है, केवल भवभूति के नाम पर एक मार्ग है !</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">चतुर शत्रु तो वह जो आपका आयुध लेकर आपको मारे, कुछ ब्राह्मणों के अहंकार की दुर्बलता का लाभ लेकर ऐसा मर्मस्पर्शी प्रकरण इतना विश्वसनीय बनाकर डाल दे कि जो प्रत्यक्ष में तो ब्राह्मणों के पक्ष में दिखे, जनमानस के मर्म को स्पर्श करे और परोक्ष रूप से राम की मर्यादा पर चोट करे । स्वयं ब्राह्मण इस पर विश्वास करें। भई वाह क्या चतुर चाल है, प्रशंसा करते ही बनती है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">उत्तर काण्ड की दूसरी कथा (यह भी उत्तररामचरित नाटक में है) में एक ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु हो जाती है, वह ब्राह्मण अहंकारपूर्ण शब्दों में राजा राम को उसके लिये दोषी ठहराता है कि उनके राज्य में कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। प्रक्षेप करने वाला आकाशवाणी भी करवाता है कि राम के राज्य में कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। वह राजा से कहता है कि राजा दोषी को ढूँढ़े और दण्ड दे। और इसे अधिक विश्वसनीय बनाने के लिये नारद जी को भी बीच में डाला, और वे भी अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कहते हैं कि कोई शूद्र अवश्य ही तपस्या कर रहा है, यद्यपि वे उसका स्थान नहीं बतला पाते और बिचारे राम को बहुत स्थानों पर खोज करना पड़ती है।राम शूद्र शम्बूक तपस्वी का वध कर देते हैं। दृष्टव्य है कि जो रामकथा नारद जी वाल्मीकि को सुनाते हैं, न केवल उसमें यह वर्णन नहीं है, वरन उसमें यह स्पष्ट लिखा है कि शूद्र भी रामायण पढ़कर या सुनकर पुण्य प्राप्त कर सकते हैं।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">शम्बूक वध की घटना तो निश्चित ही वाल्मीकि के काल की नहीं हो सकती क्योंकि तब तक अनेक उपनिषद लिखे जा चुके थे । उपनिषदों में तो न केवल शूद्रों ने तपस्या की है वरन उनमें से कुछ तो मंत्र दृष्टा बनकर औपनिषदिक ऋषि की गरिमा को प्राप्त हुए हैं, यथा ऐतरेय, सत्यकाम आदि। ऐतरेय एक रखैल के पुत्र थे, उऩ्हें गुरुकुल में शिक्षा द्वारा संस्कार मिले, और उनके द्वारा रचित पूरा ‘ऐतरेय उपनिषद’ ही है जो ऋग्वेद का उपनिषद है। सत्यकाम न केवल शूद्र थे वरन एक अवैध बालक भी थे। इऩ्हें भी गुरुकुल में शिक्षा द्वारा संस्कार मिले और वे ऋषि बने। यह मान्यता भी थी कि ‘जन्मना जायते शूद्र:। संस्कारात द्विज उच्यते।’ जन्म से हम सभी शूद्र हैं, संस्कार पाकर ही हमारा दूसरा जन्म होता है। मानव व्यवहार का इस कथन में एक मनोवैज्ञानिक सत्य छिपा है, बालक को अच्छे संस्कार दो वरना वह ‘शूद्र’, आज के अनुभवों से तो कहना चाहिये कि राक्षस, ही बनेगा। वैसे भी त्रेता और द्वापर युगों में तो जातियां कर्म के आधार पर ही मान्य थीं। स्वयं क्षत्रिय विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि बनना इसका उदाहरण है; उनके ब्रह्मर्षि बनने में उनके क्रोध, अहंकार और ईर्ष्या ही अवरोध थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से चौथे अध्याय में स्पष्ट कहा है :</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">“चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:”</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">“मैने मनुष्यों के गुणों और कर्मॊं के अनुसार चार वर्ण रचे हैं।”</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">महाभारत में तो चाहे एक अजगर प्रश्न करे या यक्ष कि ब्राह्मण कौन है, युधिष्ठिर बार बार यही उत्तर देते हैं कि गुणवान ही ब्राह्मण है चाहे जन्म से वह कोई भी हो । इस उत्तर के बाद सर्प से भीम की मुक्ति होती है, तथा यक्ष से चारों पाण्डवों को प्राणदान मिलता है। मनु स्मृति में लिखा है कि जिसने वेदों का पारायण नहीं किया वह ब्राह्मण नहीं।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">उपनिषदों की सारी शिक्षा मानव मात्र के लिये है, किसी धर्म, या जाति या रंग के लिये नहीं, उसके ऋषि तो सब प्राणियों में एकत्व ही देखते हैं। नारद जी ने वाल्मीकि को जो राम कथा सुनाई उसमें वे कहते हैं कि राम ने सभी वेदों का समुचित अध्ययन किया है। समस्त रामायण में श्रीराम के समस्त कार्यों में यही मानव की एकता और प्रेम देखा जा सकता है, वे तो मनुष्य के गुणकर्म देखकर ही यथायोग्य व्यवहार करते हैं। अत: श्री राम को तो एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर अत्यंत प्रसन्न होना था, न कि उसकी ह्त्या करना था। वैसे भी यह तो वही श्री राम हैं जो कि एक भीलनी शबरी से मात्र मिलने के लिये अपने रास्ते से हटकर जाते हैं, उस शबरी के पास कि जिससे मिलने के लिये सूचना एक राक्षस कबन्ध देता है। वही श्री राम जो निषादराज केवट को गले लगाते हैं, उसे प्रिय मित्र कहते हैं। वे चाहते तो नदी पार करने के बाद केवट को पारिश्रमिक (अँगूठी नहीं, जो कि उऩ्होंने दिलवाई) तथा धन्यवाद देकर बिना गले लगाये महान ऋषियों से भेंट करने आगे जा सकते थे, जैसा कि सामान्यतया होता है । किन्तु श्री राम ने केवट को मित्र मानते हुए गले लगाया। वे कैसे एक शूद्र की तपस्या करने के कारण उसकी हत्या कर सकते हैं !</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">ऐसा सुनने में आया कि शम्बूक वध घटना का उदाहरण देकर डाक्टर अम्बेडकर ने घोषणा की थी कि वे ऐसे हिदू धर्म का सम्मान नहीं कर सकते, जिसमें राजा राम एक शूद्र का तपस्या करने के कारण वध कर देता है। काश किसी विद्वान ने उऩ्हें सत्य का परिचय कराया होता, तो आज जो गलत तथा दुखद भेद दलितों तथा अन्य में हो गया है वह न होता। रामायण में उस प्रक्षेप डालने वाले शत्रु ने हिंदू धर्म पर कितना बड़ा सफ़ल प्रहार किया है; उसके कौशल की प्रशंसा करते ही बनती है,और हमारे सही न सोचने की जितनी निंदा की जाए,उतनी कम है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">महर्षि वाल्मीकि का ध्येय तो उस वास्तविक मनुष्य के चरित्र पर महाकाव्य लिखना था कि जो आदर्श हो । नारद जी उऩ्हें ऐसे आदर्श व्यक्ति श्री राम का परिचय देते हैं। परिचय देते समय वे रामायण की समस्त प्रमुख घटनाओं की संक्षिप्त जानकारी भी देते हैं। उसमें भी न तो सीता जी के वनवास की और न शम्बूक के वध की चर्चा तो क्या, उनका इशारा तक नहीं है। नारद जी जो अद्भुत जानकारी रखते हैं और वे घटनाओं का महत्व भी खूब समझते हैं, उऩ्होंने इस तथाकथित अत्यंत मह्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख ही नहीं किया तब यह घटना रामायण में हो ही नहीं सकती और साथ ही इसलिये भी कि यह रचयिता के मूल उद्देश्य का घोर विरोध करती है। यह श्री राम की मूल मान्यताओं के, उनकी शिक्षा के, उनके अन्य समस्त कार्यों के विरोध में है। जो राम अत्यंत बुद्धिमान हैं, निरहंकारी हैं, सौतेली मां की इच्छा मानकर राज्य छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक वनगमन करते हैं, जो निस्वार्थी हैं, दुर्बलों की रक्षा के लिये, न्याय की रक्षा के लिये जो अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं, ऐसे राम इतने घोर और मूर्खतापूर्ण अन्याय करेंगे, असंभव है। सीता जी ने अपना आभूषण तो अपहरण के बहुत देर के बाद, जब उऩ्हें यह विचार आया होगा कि इसके बिना तो राम उऩ्हें खोज भी नहीं पाएंगे, फ़ेका होगा। उस वीरान घने जंगल में थोड़ी देर खोज करने के बाद पुरुषवादी, अहंकारी और संशय करने वाले राम तो सीता के अपहरण के पश्चात यह कहकर कि वनवास का एक वर्ष ही बचा है, जो पंचवटी से अयोध्या तक लौटने के लिये अत्यंत आवश्यक है, सीता के अपहरण का तो नाम और निशान कोई नहीं मिला, लौटकर अयोध्या चले जाते, विशेषकर भरत को अग्नि समाधि से बचाने के लिये, तब उऩ्हें कोई भी दोष नहीं दे सकता था। किन्तु श्री राम ने ऐसा सोचा भी नहीं और नारी को सम्मान दिलवाने के लिये सीता जी को खोजने जैसे उस असंभव कार्य को करने के लिये चल पड़े ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">वाल्मीकि रामायण के तृतीय सर्ग में वाल्मीकि नारद जी से कथा सुनने के बाद उस पर मनन करते हैं और रामायण की योजना – सी बनाते हैं।(इसे भी कुछ विद्वान प्रक्षेपित मानते हैं।) उसमें सात काण्डों की सूची ३९ श्लोकों में है। उसमें उत्तरकाण्ड का वर्णन मात्र डेढ़ श्लोक में ही दिया गया है – अपनी प्रजा को प्रसन्न रखने के लिये सीता को वनवास देना, एवं इस पृथ्वी पर श्री राम का जो भी भविष्य में कार्य होगा उसे भी लिखा ! अर्थात या तो पूरा तृतीय सर्ग प्रक्षेप है या यह डेढ़ श्लोक । चतुर्थ सर्ग के प्रथम श्लोक में लिखा है कि, ‘श्री राम ने जब राज्य का शासन हाथ में ले लिया, उसके बाद वाल्मीकि मुनि ने उनके सम्पूर्ण चरित्र के आधार पर विचित्र पद और अर्थों से युक्त रामायण काव्य का निर्माण किया’। किन्तु पहले श्लोक के बाद दूसरे के आधे श्लोक तथा तीसरे के पूरे श्लोक में लिखा, ‘ इसमें महर्षि ने २४ हजार श्लोक, ५ सौ सर्ग तथा ‘उत्तर’ सहित सात काण्डों का प्रतिपादन किया।’ यहां भी ‘उत्तर सहित’ पद दृष्टव्य है जो इंगित करता है कि यहां भी ‘उत्तर’ प्रक्षेप है, क्योंकि इसमें किसी अन्य काण्ड का नाम नहीं है, केवल श्लोकों तथा सर्गों की संख्या बतलाई ग़ई है । और वैसे भी, जब वाल्मीकि नारद मुनि द्वारा बतलाई गई कथा पर चिन्तन मनन कर रहे थे तब यह एकदम नई घटना इस योजना में कैसे ! यह स्पष्ट है कि पूरा तृतीय सर्ग तथा चौथे सर्ग का प्रथम श्लोक बाद में चोरी से डालाअ गया है।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">किन्तु एक बड़ी चूक उन राम के शत्रु साहित्यिक चोरों से हो गई कि वे नारद जी के वर्णन में प्रक्षेप डालना भूल गए । महाभारत जैसे विशाल महाकाव्य में महर्षि व्यास जी ने भी रामायण के महत्व को समझते हुए इसकी मुख्य घटनाओं का वर्णन किया है और उनमें भी इन घटनाओं का उल्लेख नहीं है। तथा उन चतुर चोरों से एक चूक और हो गई – पूरी रामायण वर्तमान काल के रूप में लिखी गई, किन्तु उत्तरकाण्ड भूतकाल में लिखा गया है। एक और कारण से यह स्पष्ट ही प्रक्षेप है। प्रक्षेपित उत्तर काण्ड के अन्त में लिखा है,’उत्तर काण्ड सहित यहां तक यह आख्यान ब्रह्म पूजित है।’ इस कथन में ‘उत्तर काण्ड सहित’ लिखने के कारण संदेह होता है कि उत्तर काण्ड पर अनावश्यक बल दिया जा रहा है अत: ‘दाल में काला ‘ है। महाभारत काल के काफ़ी बाद तक ‘श्री राम’ का विरोध करने वाला कोई नहीं हुआ था। महाभारत (ईसा के ३००० वर्ष पूर्व) के बहुत समय बाद राजा भोज के समय में ‘चम्पू रामायण’ लिखा गया; इसमें साररूप में राम कथा का वर्णन है, किन्तु उसमें भी उत्तर कांड नहीं है। अर्थात यह प्रक्षेप महाभारत काल के बहुत बाद, या कहें राजा भोज के बाद और कालिदास के पूर्व ही डाला गया है। यह प्रक्षेप किसने डाला एक गम्भीर शोध की माँग करता है। किन्तु यह तो स्पष्ट है कि हमें शत्रु की चाल में नहीं आना चाहिये ।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">अनेक विद्वान शम्बूक वध को उचित ठहराने के लिये ‘मनुस्मृति’ का सहारा लेते हैं; यह कहते हुए कि उसमें तो शूद्रों के लिये वेद श्रवण निषेध था, इतना कि यदि सुनता हुआ मिल जाए तो उसके कानों में पिघला सीसा डाला जाए । मनु स्मृति का स्रोत कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं हैं, स्मृति का उद्देश्य वेदों उपनिषदों से नीति तथा जीवन मूल्यों और सामान्य व्यवहार संबन्धी ज्ञान लेना होता है। अर्थात उनके स्रोत वेद और उपनिषद ही हैं, तब वे शूद्रों के साथ ऐसा घोर अन्याय कैसे कर सकते हैं। एक और भयंकर आरोप है कि मनुस्मृति में नारी की निंदा की गई है। मनु स्मृति में नारी को पूज्या ही कहा है, और उसकी प्रशंसा भी अच्छी की गई है, जो वेदों तथा उपनिषदों से मेल खाती है, और नारियों की निन्दा को वेद उपनिषद बिलकुल मान्यता नहीं देते । तब यदि शत्रुगण रामायण में, महाभारत में प्रक्षेप डाल सकते हैं, तब वे मनुस्मृति में भी डाल सकते हैं। जिस मनुस्मृति में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:’ लिखा है उसमें नारी की मिंदा तो शत्रु ही प्रक्षेप डालकर कर सकता है, मनु नहीं। अभी कुछ दिन हुए, मनु स्मृति का बुंदेलखण्डी में (1902) अनुवाद, वह भी लोकप्रिय ‘आल्हा ऊदलीय’ छन्दों में, देखने (‘अनुवाद’ पत्रिका,अंक १४६) मिला। उसमें भी ‘यत्र नार्यस्तु. . .” का तथा अन्य नारी प्रशंसात्मक छन्दों के बहुत ही सुन्दर अनुवाद मिले हैं, नारी निंदा के नहीं !</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">तपस्यारत शम्बूक की हत्या करने वाले राम वाल्मीकि का आदर्श तो नहीं हो सकते थे, हां हमारे शत्रु के आदर्श हो सकते हैं ताकि वह हमारे आदर्श राम की हत्या कर सके । तुलसीदास के समान श्रेष्ठ तथा अद्वितीय साहित्यकार ने इस शम्बूक वाली क्रूर घटना को और सीता के वनवास वाली क्रूर घटना को रामचरित मानस में स्वीकार नहीं किया है। यह गीताप्रैस गोरखपुर प्रकाशित रामचरित मानस में देखा जा सकता है, उसमें जो उत्तर काण्ड है वह हिन्दू दर्शन से पूर्ण है। उसमें लवकुश काण्ड भी नहीं है। रामानन्द की टीवी प्रस्तुति में भी इन घटनाओं को स्थान नहीं मिला है, उनके बाद ‘उत्तर रामायण’ अवश्य आया किन्तु उसमें रामानन्द जैसे विद्वान का हाथ नहीं है, अवश्य ही किसी लोभी व्यक्ति का हाथ है। कुछ अन्य प्रकाशक अज्ञानवश या द्वेषवश इन घटनाओं को रामचरित मानस में प्रकाशित करते हैं, या लोभवश टीवी में दिखलाते हैं।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">यद्यपि यह भी दृष्टव्य है कि उत्तरकाण्ड में अनेकानेक घटनाएं ऐसी हैं जो ‘उत्तररामचरित’ में नहीं हैं, और उतनी दक्षता से प्रस्तुत भी नहीं की गई हैं। वरन उसमें बीभत्स घटनाएं भी हैं कि जैसे उसमें एक पुरुष श्रापवश अपनी ही लाश का मांस स्वयं खाता है ! फ़ैन्टैसी की, कल्पना की ऊँची से ऊँची उड़ान उत्तरकाण्ड में मिलती है। ऐसी रामायण लिखना तो वाल्मीकि का उद्देश्य ही नहीं था ! किन्तु असली दुर्भाग्य यह कि राम के शत्रुओं ने इसे एक नया काण्ड बनाकर, इसमें मिर्च मसाला मिलाकर वाल्मीकि रामायण में डाल दिया, जिससे यह लोक में विश्वसनीय और आदरणीय बन गया ! मुख्य बात यह है कि यह प्रक्षेप यह झूठ हमारे आदर्शों को बिगाड़ता है, हमारे समाज को तोड़ता है। जहां जहां यह प्रक्षेप है, इसे वहां से हटाना ही चाहिये । उन दिनों जब मुद्रण के लिये प्रैस नहीं थे तब प्रक्षेप डालना बहुत आसान था, विशेषकर किसी समृद्ध व्यक्ति के लिये; धन खर्च कर १०० – २०० प्रतियां लिखवाकर वितरण करवाना ही तो था।</span><br style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;" /><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">प्रश्न उठता है कि हम इतने भोले भाले कैसे बन गए कि इतनी तर्क विरोधी, आदर्श विरोधी और असंगत बातें हम बिना विचार विमर्श के मान जाते हैं । शायद सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने हमारी विवेचना शक्ति को कुंठित कर दिया है। मुझे आशा है अब स्वतंत्रता प्राप्ति के ६४ वर्षों बाद हम तर्क संगत सोच विचार कर सकते हैं। अत: इसमें सन्देह नहीं होना चाहिये कि न तो श्री राम ने शम्बूक का वध किया और न सीताजी को वन में भेजा, और यह झूठा प्रक्षेप डालने वाला दुष्कृत्य निश्चित ही श्री राम के शत्रुओं का है। दुख की बात तो यह है कि गीता प्रैस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित रामायण भी इस प्रक्षेपित उत्तर काण्ड को प्रकाशित करती है। यह हमें ध्यान में रखना चाहिये कि उत्तरकाण्ड वाली दुष्ट कहानी वाल्मीकि की रामायण के बाद रचित महाभारत में नहीं है, तुलसीकृत रामचरित मानस में नहीं है, इन दो महानतम ग्रन्थों में नही है, तब तो हमारे लिये उपरोक्त प्रमाणों की आवश्यकता ही नहीं होना चाहिये किन्तु मैने आज के तर्क प्रिय पाठकों की सुवुधा के लिये उपरोक्त तर्क दिये हैं।</span></span><span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;"><span style="background-color: black;"><span style="color: white;">मैं कहना चाहता हूं कि जहां से भी यह आया हो, इस झूठे और षड़यंत्र प्रेरित झूठे प्रक्षेप को रामायण में से निकाला जाए, ताकि रामायण समस्त मानव समाज का हित निर्दोष रूप से तथा संशयरहित होकर कर सके।</span></span><br /></span><br />
<span style="font-family: Georgia, 'Bitstream Charter', serif; font-size: 14px; line-height: 23px;">सोत्र: </span><span style="background-color: white;"><a href="http://vaidikdharma.wordpress.com/2013/01/27/sita-vanvaas-shambook-murder/">राम ने न तो सीता जी को वनवास दिया और न शम्बूक का वध किया</a></span></div>
amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-21221133413932947352014-05-18T09:12:00.001-07:002014-05-19T07:41:52.168-07:00हास्य कथा महिषासुर के शहादत की ( Comedy of Martyrdom of Mahishasur )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आंबेडकरवादियो के पास अधिक वास्तु नहीं है जिसके जरिये वे हिन्दुओ को घेर सके ,इसीलिए नए नए योजनाए बनाते रहते है ,अब इन लोगो ने जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में "महिषासुर शहादत दिवस " मनाना शुरू कर दिया है |<br />
यह लोग खुदको नागवंशी मानते है तो इन्हें बाइबिल और कुरान में वर्णित उस सर्प की याद में उत्सव मनाना चाहिए जिसने हव्वा को ज्ञान का फल खाने को कहा था और जिस कारण मनुष्य को ज्ञान मिला | पर यह लोग यह नहीं करेंगे ,क्युकी इनका इरादा न तो जातिवाद ख़त्म करना है और न दूसरा कुछ ,बस इन्हें अपने मालिक यानि इसाई और मुसलमानों के लिए भारत में हिंदुत्व को ख़त्म करना है |<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhh6yTOAGxtZNjeJHgEcY6fZASawH41d8_o60wX6JuzPaIzedfiKS1E1oQHrtS1qJeAmVLtghRrgZkbt2G8iXZHDKB7qzFvUObrjP1ob4JBsLR6CeeOOQr06BxqI3SaEY3SeurCY2TFnb4/s1600/Mahishasura.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhh6yTOAGxtZNjeJHgEcY6fZASawH41d8_o60wX6JuzPaIzedfiKS1E1oQHrtS1qJeAmVLtghRrgZkbt2G8iXZHDKB7qzFvUObrjP1ob4JBsLR6CeeOOQr06BxqI3SaEY3SeurCY2TFnb4/s1600/Mahishasura.jpg" height="320" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">समाचार पत्र </td></tr>
</tbody></table>
<div>
जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी पहले से ही नेहरुवादियो का गढ़ रहा है और नेहरुवादी पहले से ही हिन्दू विरोधी रहे है | 2011 में इसकी शुरुआत हुई और अब धीरे धीरे कई हिंदू विरोधी लेखक और कार्यकरता भी इससे जुड़ रहे है | गंगा प्रदूषित हो रही है तो उसकी सफाई करना , भ्रष्टाचार बड रहा है तो उसे कम करना ,पर्यावरण की रक्षा करना जैसे कई नेक काम छोड़कर ये लोग केवल हिन्दुओ को ही घेरने जाते है |<br />
<br />
चलिए अब मुद्दे पर आते है ,इन लोगो के अनुसार महिषासुर बंगाल का राजा था और असुर काबिले का था ,उसे हराने के लिए ब्राह्मणों ने आर्य स्त्री दुर्गा को भेजा जिसने छल कपट से महिषासुर को मार डाला और ब्राह्मणों ने बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया |<br />
<span style="color: yellow;"><br /></span>
<br />
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: yellow;">पहली बात ,महिषासुर का राज्य दक्षिण में था न की बंगाल में |</span></li>
<li><span style="color: yellow;"> दूसरी बात , असुर जनजाति के लोग केवल उत्तर पूर्व और पूर्वी भारत में रहते है , वे दक्षिण में नहीं रहते | </span></li>
<li><span style="color: yellow;">तीसरी और आखिरी बात की आंबेडकरवादी चिल्ला चिल्ला कर कहते है की यूरेशिया से आर्य आये थे उनमे केवल पुरुष ही थे स्त्री नहीं , उन आर्यों ने भारत की मूलनिवासी स्त्रियों से विवाह किया था ,तो यह आर्य स्त्री कहा से आई ??</span></li>
</ul>
<br />
अब जैसे मैं पहले भी बता चूका ही आंबेडकरवादियो को Etymology यानि भाषा विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं फिर भी वे भाषा वैज्ञानिक बनने क कोशिस करते है और किसी भी शब्द का उत् पटांग अर्थ निकलते है ,अप निचे दी कई फोटो देखिये |<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3QMKxEMOvPvvY92ciub8J6S69K0Vz6aaHN9MVWm5BkzLQW4t3jUbUu-viD6QkJa36KWiZI_ABVFRwtdC8Nj_5JnNnQfqDp1UaxiFIN2VJVtJ4sk7jn-bfgMWUf8JQKKCC7L_LtMkH6lE/s1600/comedy+emytology+of+mahishasur.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3QMKxEMOvPvvY92ciub8J6S69K0Vz6aaHN9MVWm5BkzLQW4t3jUbUu-viD6QkJa36KWiZI_ABVFRwtdC8Nj_5JnNnQfqDp1UaxiFIN2VJVtJ4sk7jn-bfgMWUf8JQKKCC7L_LtMkH6lE/s1600/comedy+emytology+of+mahishasur.jpg" height="320" width="292" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red;">फेसबुक के एक पोस्ट की फोटो </span></td></tr>
</tbody></table>
असुर शब्द से अहुर शब्द की उत्पत्ति हुई यह सही है पर उसी से अहीर शब्द की उत्पत्ति हुई यह गलत है | और महिषासुर का अर्थ भैस पालक तो बिलकुल नहीं होता | कौनसे Etymologist या भाषा वैज्ञानिक ने इन्हें यह बताया की अहुर से अहीर शब्द बना ?? यह तो इन्ही की कल्पना है | सबसे ज्यादा हास्यापद बात यह है की इन लोगो ने लिखा है की सुर कोई काम नहीं करते थे , जब वे कुछ करते ही नहीं थे तो द्रविड़ो को उन्होंने हराया कैसे ?<br />
<br />
यह तो असुर जनजाति के लोग है जो खुदको महिषासुर का वंशज मानती है ,तो फिर इन आंबेडकरवादियो ने महिषासुर को अपना पूर्वज कैसे बना लिया ? ये तो कहते है की इनके पूर्वज द्रविड़ या नागवंशी है पर आदिवासी द्रविड़ नहीं होते | कई आदिवासी जो भाषा बोलते है वे अधिकतर ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषा परिवार की होती और द्रविड़ी भाषा परिवार इससे अलग है साथ ही जैसा आप निचे की फोटो में देख सकते है की ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषाए भारत ,बर्मा ,थाईलैंड आदि देशो में बोले जाने वाली भाषा है |<br />
कई जनजाति जैसे मुंडा ,संथाल ,असुर , बोंदा आदि ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषाए बोलते है | तो यह सिद्ध होता है की आदिवासियों और आंबेडकरवादियो का एक दुसरे से कोई संबंध नहीं ,वे बेवजह ही महिषासुर को खुदका पूर्वज बना रहे है |<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWJkQbcvt3URiW8IWbda43iC0I8DiO0jBj-2F9-NiBCn2J4PrlQcuSwAyVPfUxFR002MvEOJZ289zDyApqMJ9URTfZ7wza8wPj7rfw6MhbNo8wobUQbB1y5Lw_r1T2KRBrmG7bbbvCtjk/s1600/526px-Austroasiatic-en.svg.png" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWJkQbcvt3URiW8IWbda43iC0I8DiO0jBj-2F9-NiBCn2J4PrlQcuSwAyVPfUxFR002MvEOJZ289zDyApqMJ9URTfZ7wza8wPj7rfw6MhbNo8wobUQbB1y5Lw_r1T2KRBrmG7bbbvCtjk/s1600/526px-Austroasiatic-en.svg.png" height="320" width="281" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red;">ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषा परिवार </span></td></tr>
</tbody></table>
<br />
अहीर और असुर शब्द का आपस में कोई लेना देना नहीं है , भाषा विज्ञान अनुसार शब्दों में विकृतियों के कारण उसमे परिवर्तन होता है पर उसका अर्थ वाही रहता है | अब कुछ जरुरी बातों पर ध्यान देते है |<br />
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: red;">असुर एक आर्य शब्द है |</span></li>
</ul>
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: red;">भारत में असुर , ईरान में अहुर और अस्स्यरिया के अशुर का एक ही अर्थ है यानि परमबलवान या शक्तिशाली | ( निचे फोटो देखिये ,ऋग्वेद का मंत्र है और संस्कृत में उसका अर्थ परमबलवान है ,सरस्वती दयानंद के और ग्रिफ्फित के अनुवाद अनुसार )</span></li>
</ul>
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: red;">ऋग्वेद में असुर शब्द देवताओ के साथ उपयोग किया गया है और निचे दिए गए मंत्र में " देवांसुरा " शब्द का उपयोग हुआ है |</span></li>
</ul>
<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjr1kxu5J0FltPQCadgdy7QdFd7oKbCB_4xv9s7J4oaepyUM-Kx39Fwe6O4djPnqwPr7FosyrV9i9uUhUIzLPzNYYV_u-HGDHn7Fw8FYXIbT3otg-nUGLdZB_rR9i31odXklGqF2N4BSg0/s1600/asura.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjr1kxu5J0FltPQCadgdy7QdFd7oKbCB_4xv9s7J4oaepyUM-Kx39Fwe6O4djPnqwPr7FosyrV9i9uUhUIzLPzNYYV_u-HGDHn7Fw8FYXIbT3otg-nUGLdZB_rR9i31odXklGqF2N4BSg0/s1600/asura.jpg" height="227" width="640" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red;">ऋग्वेद मंडल 8 सूक्त 25 मंत्र 4 (स्वामी सरस्वती दयानंद के अनुवाद से </span></td></tr>
</tbody></table>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span style="background-color: white; color: #252525; font-family: sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22px;"><br /></span>
<br />
<ul>
<li><span style="color: red;">ईरान में अहुर इश्वर का नाम था |</span></li>
</ul>
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: red;">अहीर का अर्थ है निर्भीक यानि जो किसी से नहीं डरता |</span></li>
<li><span style="color: red;">असुरी भाषा में असुर का कुछ और अर्थ होगा ,असुरी भाषा का असुर और आर्य भाषा का असुर अलग है |</span></li>
<li><a href="http://books.google.co.in/books?id=SGBQc6O_rEcC&pg=PA156&dq=asur+tribe&hl=en&sa=X&ei=PJ1kU-XCIYa2uAS0p4GYBA&ved=0CGMQ6wEwCQ#v=onepage&q=asur%20tribe&f=false">असुरी भाषा में असुर का अर्थ होता है वन पुत्र </a><span style="color: red;"> |</span></li>
</ul>
साफ़ है हिंदू ग्रंथो के असुर और असुर जनजाति दोनों ही अलग अलग है | हिंदू ग्रंथो के असुर असल में बुराई का प्रतिक थे और कुछ इतिहासकारों के अनुसार असुर और कोई नहीं बल्कि अहुर के पूजक ईरानी थे | ऋगवैदिक दास भी असल में ईरानी दाह ( Dahae ) किले के थे |<br />
इसके अलावा भी कुछ बातें है जिनपर गौर करना चाहिए जैसे की<br />
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: yellow;">असुर आदिवासियों की लोक कथाओ में न ही महिषासुर का वर्णन है और न ही ही अन्य असुरो का जिनका वर्णन हिन्दू ग्रंथो में है |</span></li>
</ul>
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: yellow;">न ही उनकी लोक कथा या गीतों में किसी अन्य सभ्यता या आक्रमण का वर्णन है |</span></li>
</ul>
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: yellow;">आज़ादी से पहले असुर जनजाति के नवरात्री पर शोक मानाने या महिषासुर को श्रंधांजलि दमे का कोई रिकॉर्ड नहीं |</span></li>
</ul>
<ul style="text-align: left;">
<li><span style="color: yellow;">नवरात्री पर महिषासुर के लिए शोक जाताना आज़ादी के कई वर्षो बाद सुरु हुआ |</span></li>
<li><span style="color: yellow;">दुसरे आदिवासी काबिले मुंडा या संथाल असुर काबिले और उनके बिच में हुए युद्ध या त्स्क्रव का वर्णन करते है पर एक भी असुर राजा का वर्णन नहीं जिसका उल्लेख हिन्दू ग्रंथो में हुआ है |</span></li>
</ul>
<br />
सच तो यह है की असुर और अन्य कई आदिवासी अन्य भारतीय सभ्यताओ से अनजान थे | हमें न तो इनका वर्णन बोद्ध ग्रंथो में मिलता है , न यूनानी , न मुस्लिम लेखो में | न वे हमें जानते थे और न हम उन्हें |<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifLKEBk4K2Ns6vQzJAd0L0i112mIWdYguzkUil0-uiu_ppJjzbkX5DLicsQ8bFDYc14jqb0EcnA3TkHBLqJaXItDy25Ucc0NCO4dUUMhzJ_s0zOeKyWAuL0SHYuLCpxQWP3PnDn66MTUg/s1600/india-nagas-2009-12-2-7-12-46.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifLKEBk4K2Ns6vQzJAd0L0i112mIWdYguzkUil0-uiu_ppJjzbkX5DLicsQ8bFDYc14jqb0EcnA3TkHBLqJaXItDy25Ucc0NCO4dUUMhzJ_s0zOeKyWAuL0SHYuLCpxQWP3PnDn66MTUg/s1600/india-nagas-2009-12-2-7-12-46.jpg" height="213" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red;">नागा आदिवासी </span></td></tr>
</tbody></table>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
अब जरुरी नहीं की असुर आदिवासी हिन्दू ग्रंथो के असुर हो , नागालैंड को ही ले लीजिये , माना जाता है की अर्जुन की पत्नी उलूपी भारत के उत्तर पूर्व के नाग राज्य की थी | तो इतिहासकारों ने नागा आदिवासियों को ही उलूपी का वंशज मान लिया ,पर सच तो यह है की नागालैंड के नागा आदिवासी नाग की पूजा ही नहीं करते और न ही वे खुदको नाग बुलाते है | जब अंग्रेज नागा आदिवासियों से मिले तो उन्होंने उनका इतिहास खोजना शुरू किया , तब अहोम साम्राज्य के दस्तावेजो में नागा लोगो का उल्लेख मिला | थोडा ही उल्लेख था उनका और उन्हें कई नामो से पुकारा गया था , उनमे से एक नाम था नागा तो अंग्रेजो ने नागालैंड के आदिवासियों को नागा कहना शुरू कर दिया |<br />
मुंडाओ की लोक कथा <span style="background-color: white; color: #252525; font-family: sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22px;"> </span>'<span style="background-color: white; color: #252525; font-family: sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22px;"><b>सोसोबोंगा</b>'</span> मैं उनके और असुर काबिले के बिच हुए युद्ध का वर्णन है और यह भी वर्णन है की वे कही और से आकर असुरो के साथ आकर बसे | इसी कदर संथाल काबिले के लोक गीतों में वर्णन है क वे चम्पागढ़ के थे पर उन्हें वह जगह छोड़कर कही और बसना पड़ा | देखने वाली बात यह है की किसी भी आदिवासी लोक कथा में कही भी आर्य आक्रमण का उल्लेख नहीं , जब आदिवासी इतनी प्राचीन बातें याद रख सकते है तो वे आर्यों को कैसे भूल गए ??<br />
इसका आंबेडकरवादियो का उत्तर होता है की ब्राह्मणों ने उन्हें भुलवा दिया , हा भाई ब्राह्मणों को और कुछ काम धंदा ही नहीं है लोगो को उनका इतिहास भुलाते रहे ??<br />
दुनिया में कही भी ऐसा नहीं हुआ की किसी एक संस्कृति के व्यक्ति ने किसी अन्य संस्कृति के व्यक्ति को अपनी संस्कृति भुलाने की कोशिस की हो ??<br />
<br />
इससे यह सिद्ध होता है की असुर काबिले के लोग पुराण में वर्णित असुर नहीं और नही उनका और आर्यों का युद्ध हुआ | यह केवल एक प्रयत्न है हिन्दुओ के त्योहारों के सहारे उन्हें निचा दिखाने और इसाई मिशनरी का भारत पर कब्ज़ा करने का |<br />
<br />
जय माँ भारती<br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #252525; font-family: sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22px;"><br /></span></div>
</div>
amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-24478621145036936522014-04-01T08:59:00.001-07:002014-04-01T08:59:32.180-07:00चमारद्वीप का मिथक (Myth of Chamardwipa)<p>आंबेडकरवादी दावा :- एशिया का असली नाम चमारद्वीप था और उसी से आर्यों ने जम्बुद्वीप शब्द बनाया ,चमारद्वीप अफगान से ऑस्ट्रेलिया तक फैला था । 3200 ईसापूर्व में आर्य यूरेशिया से आये और चमारद्वीप कब्ज़ा लिया ।फिर चमारद्वीप का नाम जम्बुद्वीप,फिर आर्यावर्त और आखिर में भारत रख दिया ।<br>
गौतम बुद्ध ने मूलनिवासियो के लिए क्रांति की और फिरसे भारत का नाम जम्बुद्वीप हुआ ।</p>
<p>दावे की पोल खोल :-<br>
Etymology उस विज्ञान को कहते है जिसमे किसी शब्द की उत्पत्ति खोजी जाती है ,अब क्या अम्बेडकरवादी मुझे बताएँगे की किस Etymologist ने यह बताया की चमारद्वीप से जम्बुद्वीप शब्द आया है ?? या यु ही हवा में बात बना दी ??<br>
चलो मान भी लिया की जम्बुद्वीप पहले चमारद्वीप था ,तो भारत के अलावा कई देश थे जम्बुद्वीप पर ,क्या उनके प्राचीन लेखो में चमारद्वीप शब्द है ?<br>
शायद आंबेडकरवादियो को इतिहास का ज्ञान नहीं ,क्युकी 3200 ईसापूर्व में ही सिंधु घाटी सभ्यता अपने चरम पर पहुची थी ,तो यदि इस वक़्त विदेशी सिंधु घाटी सभ्यता पर हमला करते तो सिंधु घाटी सभ्यता का तभी अंत हो जाता ।<br>
आंबेडकरवादी तो मानते है की सिंधु घाटी के लोग तमिल बोलते थे ,और तुम लोग इतने बड़े Etymologist हो ही तो जरा बता दो तमिल में चमारद्वीप का क्या अर्थ है ??<br>
चलो यदि मान ले की जम्बुद्वीप का नाम पहले चमारद्वीप था तो फिर आर्यों के ग्रंथो में कहा चमारद्वीप का उल्लेख है ??<br>
गौतम बुद्ध का उद्देश्य था हर मनुष्य को मोक्ष की राह पर ले जाना ना की कोई मूलनिवासी क्रांति ।उपाली के अलावा शायद ही कोई दलित था गौतम बुद्ध के संघ में ,तो क्या केवल एक ही मूलनिवासी के साथ मिलकर उन्होंने क्रांति की थी ??<br>
बुद्ध मूलनिवासियो के क्रांति के लिए क्या उपदेश दिए थे ??<br>
और यदि ब्राह्मणों ने बोद्ध धर्म में मिलावट की तो तुम्हे कैसे मालूम की बुद्ध भी कोई वास्तविक व्यक्ति थे ,क्या पता ब्राह्मणों ने तुम लोगो को मुर्ख बनाने के लिए एक काल्पनिक किरदार को खड़ा कर दिया ??<br>
जब इन सवालो का जवाब दोंगे तो मान लूँगा की जम्बुद्वीप पहले चमारद्वीप था ।</p>
<p>जय माँ भारती </p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgODbuQIOZ3u9r6RWGplaMXE7tKZJ-hxD-zSNvmqh0J16bFuDT9vm_wJBHtc7bsaA-ND4QFvgl7rVeoWln9Az0QSoG-aqC0rJwpnYt9rQP49tKxFQDv0GhCLVbD4HuDO0BhRbUzTRhW4ag/s1600/naksaaassa.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgODbuQIOZ3u9r6RWGplaMXE7tKZJ-hxD-zSNvmqh0J16bFuDT9vm_wJBHtc7bsaA-ND4QFvgl7rVeoWln9Az0QSoG-aqC0rJwpnYt9rQP49tKxFQDv0GhCLVbD4HuDO0BhRbUzTRhW4ag/s320/naksaaassa.jpg"> </a> </div>amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-45827431335173888352014-03-28T08:47:00.001-07:002014-03-30T10:25:23.396-07:00तिरुपति बालाजी एक हिंदू तीर्थ है भाग 1 (Tirupati Balaji is a Hindu ShrinePart 1 )<p>Tirupati Balaji was a Budhhist Shrine यह 30 अध्याय की यह पुस्तक श्री जमनादास जी ने लिखी है जो की एक आंबेडकरवादी है और इस पुस्तक के जरिये भारत के लगभग हर बड़े हिंदू तीर्थ को बोद्ध मंदिर बताने की कोशिश की है ।<br>
मुझे जमनादास की इस पुस्तक को गलत सिद्ध करने के लिए 30 अध्याय की पुस्तक लिखने की जरुरत नहीं क्युकी तिरुपति का उल्लेख एक भी बोद्ध ग्रंथ में नहीं ,तो क्या स्वयं गौतम बुद्ध जमनादास जी को सपने में बताकर गए थे की तिरुपति एक बोद्ध मंदिर है ??<br>
तिरुपति आदि हिंदू मंदिरों को बोद्ध मंदिर सिद्ध करने के लिए जो तर्क जमनादास जी ने दिए है वे बचकाने है ,जैसे की वनवासी या आदिवासी बोद्ध ,यदि वनवासी बोद्ध होते तो उनके कर्म काण्डो में आज भी बोद्ध धर्म के अंश होते जो की नहीं है ,साथ ही एक और तर्क यह भी है की इन मंदिरों में दलितों को आने की इज़ाज़त है जो इन मंदिरों के बोद्ध होने की पुष्टि करता है ,हा जैसे की बोद्ध अपने मंदिरों में दलितों को जाने देते थे ,लालिताविस्तारासुत्त में गौतम बुद्ध कहते है की बोधिसत्व केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय कुल जैसे पवित्र कुल में ही जन्म ले सकता है ।बोद्ध धर्म दलितों के लिए कितना भला सोचता है यह बताने की अब जरुरत नहीं ।<br>
हमें दंतिवार्मन पल्लव के लेख मिलते है जो की 900 इसवी के कुछ ही पहले के है और उसमे तिरुपति का विष्णु मंदिर होने का उल्लेख है जबकि अभीतक एक भी ऐसा लेख नहीं मिला दंतिवार्मन पल्लव के पहले का जिसमे तिरुपतिया तिरुमल्लाई पर्वत पर किसी बोद्ध मंदिर का उल्लेख हो ।<br>
चुकी तिरुपति दंतिवार्मन पल्लव के काल में बना था इसीलिए यह सिद्ध होता है की वह कोई बोध मंदिर नहीं था जिसको बाद में हिंदू बना दिया गया ।<br>
बालाजी की मूर्ति में जनेउ भी है और उनकी छाती पर लक्ष्मी जी है ,इसपर जमनादास कहते है की वे लक्ष्मी नहीं बल्कि एक बोद्ध देवी है जिसे ब्राह्मणों ने लक्ष्मी बना दिया जो की गलत है साथ ही जमनादास कहते है की बालाजी की या विष्णु जी की मूर्ति में कोई हथियार नहीं अर्थात वह हिंदू मूर्ति नहीं ,पहले तो यह बताओ की कहा लिखा है की हिंदू मूर्तियों में देवताओ के हाथ में हथियार होना ही चाहिए ?? श्री कृष्ण जी की कई मूर्तियों में हथियार नहीं बल्कि बांसुरी है ,तो क्या श्री कृष्ण जी भी गौतम बुद्ध थे ??<br>
सिलाप्पतिकाराम यह एक बोद्ध ग्रंथ है और इसमें उल्लेख है की एक ब्राह्मण तिरुमल्लाई पर्वत जाता है जहा तिरुपति स्थित है ,वहा वह एक विष्णु मंदिर में भजन गाता है और वह मंदिर और कोई नहीं बल्कि तिरुपति बालाजी ही है ।<br>
खुद बोद्ध ग्रंथ कहते है की तिरुपति कोई बोध मंदिर नहीं अपितु एक हिंदू मंदिर है ।<br>
तिरुपति के साथ साथ जगन्नाथ पूरी को भी बोद्ध तीर्थ कहा गया है इस पुस्तक में ।<br>
जमनादास जी ने जगन्नाथ पूरी को एक बोद्ध तीर्थ सिद्ध करने के लिए जो प्रमाण दिए है वे प्राचीन काल में उड़ीसा के एक बोद्ध राज्य होने के है पर वे यह सिद्ध नहीं कर सके की श्री जगन्नाथ जी का मंदिर है या जगन्नाथ पूरी पहले एक बोद्ध तीर्थ था ।<br>
यह पुस्तक एक बकवास है यह इस बात से सिद्ध होता है की जमनादास जी ने लिखा है की "फा क्सियन (Fa xian) जब भारत आया था तब उसने रथ यात्रा देखि थी और उसमे बुद्ध की मूर्ति थी ,यानि प्राचीन काल में जगन्नाथ पूरी में बुद्ध की रथ यात्रा निकाली जाती थी ।"<br>
जब मैंने यह पड़ा तो मैं भी चक्कर में पड़ गया की अब इसका क्या जवाब दू ,तब मैंने इन्टरनेट में कई वेबसाइट देखि और उनमे भी यही लिखा था ,शायद जमनादास जी ने इन्ही वेबसाइट की सहयता से इस पुस्तक को लिखा है ।<br>
आखिर मैंने फैसला किया की मैं स्वयं फा क्सियन का लिखा पडूंगा ।<br>
A Record of Buddhistic Kingdoms by James Legge पेज नंबर 79 पड़े ।<br>
यह फा क्सियन की पुस्तक है जिसका अंग्रेजी में अनुवाद जेम्स लग्गे ने किया है और गूगल बुक में आपको आसानी मिल जाएगी ।<br>
फा क्सियन कलिंग या उड़ीसा के रथ यात्रा का जीकर नहीं करते है बल्कि पाटलिपुत्र के रथ यात्रा का करते है ,साथ ही वे यह भी लिखते है की रथ पर बुद्ध की मूर्ति है साथ बोधिसत्व की मूर्ति भी है ,पर वे इस यात्रा में कही भी बोद्ध भिक्षुओ का उल्लेख नहीं करते बल्कि यह लिखते है की पाटलिपुत्र के दरवाजे पर ब्राह्मण रथ का स्वागत करते है यानी की फा क्सियन ने किसी हिंदू देवता को गलती से गौतम बुद्ध समाज लिया होगा क्युकी बोद्ध उत्सव में रथो का स्वागत भला ब्राह्मण क्यों करेंगे ??<br>
शायद फा क्सियन राम को गौतम बुद्ध और लक्ष्मन और सीता को बोधिसत्व समाज रहे हो या फिर जगन्नाथ की रथ यात्रा हो ।<br>
जमनादास यह भी लिखते है की कलिंग में गौतम बुद्ध का दांत रखा हुआ था जिसकी लोग पूजा करते थे और उसकी ही रथ यात्रा निकाली जाती थी और फा क्सियन ने इसका भी उल्लेख किया है ।<br>
बड़ी चतुराई से जमनादास जी ने फा क्सियन के उल्लेखो में हेर फेर कर दी ।सच तो यह है की फा क्सियन ने बुद्ध का दांत कलिंग में नहीं बल्कि श्री लंका में देखा था और वहा के लोग उस काल में उत्सव मनाते थे पर रथ यात्रा नहीं ।<br>
इससे यह साबित होता है की जगन्नाथ कोई बोद्ध मंदिर नहीं ।<br>
जमनादास यह भी कहते है की जगन्नाथ में जातिवाद नहीं है तो जगन्नाथ में जातिवाद न होने की उसका कारण है मध्यकालीन कई हिंदू संत जिन्होंने जातिवाद के विरुद्ध काम किया ।<br>
जमनादास जी ने पंढरपुर के विट्ठल मंदिर को भी एक बोद्ध स्थल बता दिया । जमनादास जी पहले तो अपने बचपन का उधारण देते है की उनकी स्कूल की टेक्स्ट बुक में विट्ठल की तस्वीर को बुद्ध बताया गया था ,अब प्रिंटिंग में गलती हुई होगी । इससे बड़ा चुटकुला और हो की क्या सकता है ?? श्री विट्ठल जी की मूर्ति के दोनों हाथ अपनी कमर पर है ,भला गौतम बुद्ध की इस मुद्रा में कोई मूर्ति मिली है ??<br>
जमनादास कहते है की विट्ठल की मूर्ति कत्यावालाम्बित मुद्रा में है और बुद्ध की कई मूर्तिय इसी मुद्रा में है ,पर विट्ठल जी की मूर्ति कत्यावालाम्बित मुद्रा में बुल्किल नहीं है ।<br>
जमनादास जी विट्ठल को गौतम बुद्ध की मूर्ति सिद्ध करने के लिए संत एकनाथ के 2 दोहे देते है जिसमे विट्ठल जी को बुद्ध का अवतार कहा गया है ।पहले तो जमनादास जी यह बताये की बोद्ध धर्म में अवतारवाद कहा से आ गया ?? श्री विट्ठल विष्णु के अवतार कहे जाते है और गौतम बुद्ध भी ,इसीलिए संत एकनाथ <br>
कहते है की विट्ठल बुद्ध यानि विष्णु के अवतार है ।<br>
जमनादास कहते है की संत तुकाराम और संत नामदेव भी विट्ठल को 'मौनी बुद्ध' कहते है ।पर मौनी बुद्ध का अर्थ है शांत पुतला या मूर्ति यानि की संत तुकाराम और संत नामदेव कहना चाहते है की विट्ठल मूर्ति के रूप में है ।<br>
जमनादास दुबारा हेर फेर करते है इस बार ,वे बार बार विट्ठल ,विठोबा और पांडुरंग को एक कन्नड़ शब्द बता रहे है जबकि वे मराठी है ,पुंडलिक को पुन्दारिक से जोड़ते हुए कहते है की सधर्म पुन्दारिक नाम का एक बोद्ध ग्रंथ भी है ।पर पुंडलिक विट्ठल जी का भक्त था साथ ही इस ग्रंथ का नाम पुन्दारिक होने से विट्ठल के बुद्ध होने का क्या लेना देना ,क्या किसी बोद्ध ग्रंथ में लिखा है की पंढरपुर में कोई बोद्ध मंदिर था ?? नहीं <br>
जमनादास यह भी कहते है की विट्ठल आदिवासियों के प्राचीन देवता थे आर्यों के आने से पहले और फिर विट्ठल बुद्ध से जुड़ गया ,अब पहले यह तय करो की विट्ठल प्राचीन देवता है की गौतम बुद्ध ।<br>
इसी के साथ यह भी साबित हो गया की पंढरपुर के विट्ठल बुद्ध नहीं ।</p>
<p>मैंने कुछ सहयता यहाँ से भी ली है ,इसमें इस पुस्तक  में के हर सवाल का जवाब है <a href=" http://ravilochanan.blogspot.in/2007/05/tirupati-is-not-buddhist-shrine-answer_05.html?m=1">।यहाँ क्लिक करे</a> </p>
<p>जय माँ भारती <br>
</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrZ7V4_n15LUDNwez2yd5blNapyowU0g1NSrtD8aaJc3NAdSZDQpDEpXhXQAxJYi-5JYw5GfhCYGu3RDv9BzyfVXVvlxd9jaJjF1G4SWXMZ8LpaoqS-296IDOwmCV5EXAOq3NRoOohdas/s1600/Tirupati%25252BBalaji%25252BPhoto.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrZ7V4_n15LUDNwez2yd5blNapyowU0g1NSrtD8aaJc3NAdSZDQpDEpXhXQAxJYi-5JYw5GfhCYGu3RDv9BzyfVXVvlxd9jaJjF1G4SWXMZ8LpaoqS-296IDOwmCV5EXAOq3NRoOohdas/s320/Tirupati%25252BBalaji%25252BPhoto.jpg"> </a> </div>amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-75697857750236133232014-01-28T02:11:00.001-08:002014-01-28T02:48:12.079-08:00रावन और बोद्ध धर्म (Ravana and Buddhism)<p>आंबेडकरवादी दावा :-<br>
रावन एक दलित/नागवंशी राजा था जो बोद्ध था और जो लंका या गोंड पर राज करता था।<br>
हिंदू बोद्ध विरोधी थे इसीलिए रावन को रामायण में खलनायक बना दिया ।</p>
<p>दावे का भंडाफोड़ :-<br>
मैं जो साबुत देता हु वो ज्यादातर मुख्य धारा इतिहास के अनुसार होता है, तो कुछ लोग जो कहेंगे की में RSS का इतिहास बता रहा हु वे चुप रहे ।<br>
आंबेडकरवादियो का यह सिधांत विरोधाभास से भरा हुआ है ।<br>
इस सिधांत के 3 वर्शन है <br>
1) रावण गोंड राजा था और बोद्ध था ,पुष्यमित्र हिंदू विरोधी था और उसने बोद्ध धर्मियो का नाश किया ।<br>
2) रावण एक बोद्ध राजा था लंका का और बाकि सब पहले वाले की थी तरह ।<br>
3) बृहद्र मौर्य रावण था और पुष्यमित्र राम था और बाकि सब वाही जो पहले वाले में  लिखा है ।<br>
राम को दलित विरोधी या नागवंशी विरोधी सिद्ध करने में कई अड़चन थी तो यह अलग अलग सिधांत पैदा हो गए ।<br>
ये बिचारे तो यह भी फैसला नहीं कर पाए की रावन आखिर कौन था ? गोंड राजा,लंका का राजा या बृहद्र मौर्य ,इसी से पता चलता है की इस सिधांत में कोई दम नहीं और इसे लोग कैसे मान लेते है पता नहीं । <br>
पहले गोंड राजा वाले सिधांत पर बात करते है,मध्य प्रदेश में एक गोंड समुदाय रावण की पूजा करता है इसी से इन लोगो ने यह निष्कर्ष निकाला की रावण एक गोंड राजा था ,पर मध्य प्रदेश में ही एक ब्राह्मण समुदाय भी रावण की पूजा करता है ,तो इसपर क्या कहेंगे आंबेडकरवादी ??<br>
इसके अलावा हिंदू ,जैन और बोद्ध ग्रंथो में रावण को हमेशा से लंका का ही राजा कहा गया है तो वो गोंड का राजा कैसे ??<br>
और किस ग्रंथ में लिखा है की पुष्यमित्र के काल में रावण नाम का कोई राजा था ??</p>
<p>अब दुसरे वाले वर्शन पर आते है ।बोद्ध ग्रंथ लंकावतार सुत्त के अनुसार रावण बोद्ध राजा था और महात्मा बुद्ध उसके राज्य काल में श्री लंका आये थे और बुद्ध से दीक्षा ले रावण बोद्ध बन गया ।<br>
श्री लंका के बोद्ध और भारत के कई बोद्ध यही मानते है की रावण बोद्ध था और तमिल या दलितों का हीरो था जबकि रावण ने एक भी ऐसा काम नहीं किया जो उसे तमिलो का या दलितों का मसीहा बना दे ।<br>
अब लंका में बोद्ध धर्म आया अशोक के काल में उससे पहले वहा बोद्ध धर्म नहीं था बल्कि हिंदू धर्म था ।<br>
लंका की लोक कथाओ के अनुसार लंका का पहला राजा था विजय ।विजय राजा सिंहभाहू का पुत्र और सिंहपुर राज्य का राजकुमार और उसकी माँ कलिंग की राजकुमारी थी,सिंहपुर की सही स्थिति नहीं पता ।कुछ के अनुसार सिंहपुर गुजरात में था और कुछ के अनुसार बंगाल में  ,विजय दुष्ट था इसीलिए एक दिन उसके पिता ने उसे अपने राज्य से निकाल दिया। राजकुमार विजय अपने 700 अनुयायियों के साथ समुद्र के रस्ते नई जगह की खोज में निकले,जब विजय को निकाला गया था तभी महात्मा बुद्ध की मृत्यु हुई थी यानि विजय 500 ईसापूर्व का था ।<br>
विजय तब लंका पहोचे,क्युकी विजय के पिता सिंहभाहू के पिता एक शेर या सिंह थे इसीलिए वे खुदको सिहल पुकारते ।<br>
विजय लंका में हिंदू धर्म लाया ऐसा भी हम कह सकते है और विजय हिंदू ही था ।<br>
तब लंका में नाग ,राक्षस और यक्ष नाम के काबिले के लोग रहते थे ।<br>
विजय ने राक्षसो की राजकुमारी से विवाह किया और फिर वह श्री लंका का पहला राजा बना ।<br>
अब हिंदू धर्म पहले से लंका में था या विजय उसे लाया लेकिन इससे यह सिद्ध होता है की हिंदू धर्म लंका में बोद्ध धर्म से पहले से था ।<br>
लंका के लोग भी हिंदू थे या बन गए और लंका के लोगो में रावण काफी प्रसिद्ध थे ।<br>
जब बोद्ध धर्म लंका के लोग अपनाने लगे तो उन लोगो ने रावण को भी बोद्ध धर्म में ढाल दिया ।</p>
<p>अब तीसरे वर्शन पर आते है ।<br>
तीसरे वर्शन की कहानी अशोकवादाना से है ।कहानी अनुसार पुष्यमित्र ने हजारो बोद्ध भिक्षुओ की हत्या कर दी थी<a href="http://prachinsabyata.blogspot.in/2013/09/ashokavandana-exposed.html"> ,यह कहानी काल्पनिक है और अशोकवादाना के बारे में पड़ने के लिए यहाँ क्लिक करे ।</a><br>
इस वर्शन के अनुसार रामायण काल्पनिक कहानी है और बृहद्र मौर्य ही असल में रावण था ।<br>
बृहद्र मौर्य एक छोटा राजा था और पुष्यमित्र का असली खतरा बृहद्र मौर्य नहीं था बल्कि यूनानी राजा मिलिंद था ।<br>
पर मिलिंद एक आक्रमणकारी था और बोद्ध था तो असली खलनायक मिलिंद ही नज़र आ रहा था और उसके किलाफ़ युद्ध लड़ने वाला पुष्यमित्र नायक नज़र आ रहा था ,तो मिलिंद के बजाये अम्बेडकरवादीयो ने बृहद्र को ले लिया ।</p>
<p>रावण हिंदू था और ब्राह्मण था ।<br>
हिंदू,जैन और बोद्ध ग्रंथो में रावण के बारे में जितना लिखा है वो उसे दलित या तमिल लोगो का मसीहा कही भी सिद्ध नहीं करती ।<br>
न रावण ने दलितों के लिए कोई जंग की और न तमिलो के लिए कुछ किया <br>
क्युकी रामायण में रावण राम के किलाफ़ था इसीलिए उसे दलित और तमिल मसीहा बना दिया साथ में एक बोध भी जो वो कभी था भी नहीं ।</p>
<p>जय माँ भारती <br></p>
amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-52600358519607379132014-01-26T02:46:00.001-08:002014-01-26T02:46:57.305-08:00शिवाजी हिन्दू होते <p>ब्रिगेडी छत्रपति शिवाजी महाराजां कडून काय<br>
शिकले :<br>
1. ब्राम्हण द्वेष<br>
2. हिंदू धर्म मानू नका<br>
3. देवान वर टीका करणे<br>
खरच महाराजांनी हे शिकवले<br>
का महाराजांचा देवी देवतांवर विश्वास नवता तर मग<br>
1 महाराजांनी प्रताप गाडा वर भवानी मंदिर<br>
का बांधले .<br>
2 गोव्याच्या सप्त कोटेश्वर चा जीर्णोद्धार<br>
का केला .<br>
3 निंबाळकर आणि नेताजी पालकर यांचे शुद्धीकरण<br>
करून त्यांना पुन्हा हिंदू का केले . राजे देव धर्म मनात<br>
होते . म्हणूनच हिंदूंचा त्यांनी उद्धार केला .<br>
महाराजांचं नाव घेऊन संभाजी ब्रिगेड<br>
महाराजांचा आणि मराठ्यांचा अपमान करत आहे .<br>
एकी कडे राजे सेक्युलर होते हे बोलायचे<br>
आणि दुसरीकडे ब्राम्हण आणि हिंदू देवान वर अश्लील<br>
टीका करायची . जय हिंदू मराठा</p>
amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4388990371691965869.post-72176701792230808482014-01-22T02:10:00.001-08:002014-01-22T02:10:49.644-08:00द्रविड़ी भाषा (Dravidian Language)<p>आंबेडकरवादियों का दावा :-<br>
द्रविड़ी भाषा परिवार की भाषाए भारत की मूल भाषा था आर्यों के आने से पहले ।द्रविड़ी भाषा की उत्पत्ति भारत में हुई थी ।</p>
<p>मिथक का भंडाफोड़ </p>
<p>भारत में आज तिन भाषा परिवारों की भाषाए बोली जाती है ।एक तो हिंद आर्य जो सबसे ज्यादा लोग बोलते है।दूसरा सबसे बड़ा भाषा परिवार है द्रविड़ी भाषा परिवार जो दक्षिण भारत में अधिक बोला जाता है ,ब्राहुई भी द्रविड़ी परिवार से ताल्लुक रखता है और वही उन गिनी चुनी भाषा में से एक है जो भारतीय उप महाद्वीप के उत्तर में बोली जाती है ।तीसरा भाषा परिवार है सीनों तिबत्तन भाषा परिवार जो उत्तर पूर्व भारत में बोली जाती है ।<br>
द्रविड़ी भाषा भारत की मूल भाषा थी आर्यों के आने से पहले यह मिथक अंग्रेजो ने गडा था ।<br>
आज अस्को प्रपोला जैसे विद्वान भी इस बात का समर्थन करते है ,समर्थन क्या ,अस्को को इनाम के तौर पर काफी पैसे मिलते है दक्षिण भारत से जो खुदको द्रविड़ी समझते है ।</p>
<p>जब मानव अफ्रीका से निकला तब वो कई दलो में बट गया ,जो समूह जहा गया और बसा वहा एक नई भाषा का विकास हुआ ,यानि हर भाषा परिवार एक दुसरे से संबंध रखती है ।</p>
<p>द्रविड़ एक संस्कृत शब्द है जो दो शब्द द्रव और विद से बना है । द्रव का अर्थ है जल और विद का अर्थ विद्वान अर्थात ऐसे लोग जो समुद्र के ज्ञाता हो ,कुछ ग्रंथो में महाराष्ट्र,गुजरात,तमिल नाडू,उड़ीसा आदि तटीय इलाको को द्रविड़ी देशो में गिना गया है ,ये राज्य समुद्र के करीब है ।</p>
<p>द्रविड़ी भाषा भारत की मूल भाषा नहीं पर उसका पूर्वज हो सकता है ,उसका पूर्वज और संस्कृत का पूर्वज एक ही है ।भारत में 70 हज़ार वर्ष पहले लोग नर्मदा नदी के किनारे बसे ,फिर बाद में इन्ही लोगो का समूह उत्तर भारत में बसा और एक दक्षिण में ।<br>
अलग अलग होने से पहले ये लोग जो भाषा बोलते थे वह ही तमिल और संस्कृत की माँ थी ।<br>
पर संस्कृत अपनी माँ के ज्यादा करीबी है और तमिल आदि द्रविड़ी भाषा विदेशी ज्यादा लगती है ।<br>
डेविड मेक आलपिन ने अपनी शोध से पता लगाया की प्राचीन ईरान की एलाम सभ्यता की भाषा एलामी भाषा और द्रविड़ी भाषा के 20% शब्द मिलते है ।<br>
एलामी भाषा किस भाषा परिवार से ताल्लुक रखता है इसपर अभी शोध चल रही है पर कुछ लोगो के अनुसार एलामी भाषा द्रविड़ी भाषा परिवार की सबसे प्राचीन भाषा है ।<br>
डेविड अनुसार सिंधु सरस्वती सभ्यता की भाषा द्रविड़ी भाषा थी और जैसे जैसे इराक से खेती दूसरी जगह फैली तो खेती ईरान पहोची और वहा से सिंधु घाटी में ,खेती के साथ एलामी भाषा भी भारत पहोची ।<br>
इसके अलावा कुछ विद्वानों ने द्रविड़ी भाषा और प्राचीन इराक की भाषा सुमेरी भाषा में समानता पाई है पर सुमेरी भाषा एफ्रो एशियाटिक भाषा परिवार से ताल्लुक रखती है ।<br>
कुछ विद्वानों ने पश्चिमी यूरोपीय भाषा और द्रविड़ी भाषा में भी समानता देखि है ।<br>
यदि ऐसा ही है तो द्रविड़ी भाषा भारतीय कम विदेशी ज्यादा है ।<br>
पर अस्को प्रपोला जैसे विद्वान जो पैसे लेते है और कई अन्य लोगो ने इस बात को नकार दिया की द्रविड़ी भाषा इराकी,ईरानी और पश्चिमी यूरोपीय भाषा से मिलती है ।<br>
आखिर नकारेंगे ही ,इनके आकाओ को यह मंजूर नहीं ।<br>
आर्य द्रविड़ विवाद केवल भारत में ही नहीं हर उस देश में है जहा काले गोरे का रंगभेद है ।<br>
अश्वेत लोग मानते है की वे द्रविड़ी है और श्वेत लोग खुदको आर्य मानते है ।<br>
यूरोप,इराक और ईरान को हमेशा से आर्यो का यानि की श्वेत लोगो का गड़ माना जाता है ,अब यदि अश्वेतों की भाषा आर्यो की भाषा से मिलती हो यह बात साबित हो जाये तो रंग के नाम पर राजनीती करके पैसा कमाने वाले पैसे कैसे कमाएंगे ??<br>
न कोई श्वेत जाती है और न ही अश्वेत ,यह केवल कल्पना है ।</p>
<p>मैं आपको बता चूका हु की द्रविड़ी भाषा भारतीय न होकर ज्यादातर विदेशी है ।<br>
सिंधु सरस्वती सभ्यता के लोग संस्कृत बोलते थे ।</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnXqbabuXkONFnOdzYCHjAlinmAxd4C9A49uswRacGErjYViYNfBnfeHCgMAYMloXYWcKVf4YPTMYxjuDXKOX_SwcG76IfSOQBjZm-Y19esS3nEA9_0CL7ybTJPMV6cDk_eHcWFVamEg0/s1600/300px-Dravidian_subgroups.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnXqbabuXkONFnOdzYCHjAlinmAxd4C9A49uswRacGErjYViYNfBnfeHCgMAYMloXYWcKVf4YPTMYxjuDXKOX_SwcG76IfSOQBjZm-Y19esS3nEA9_0CL7ybTJPMV6cDk_eHcWFVamEg0/s320/300px-Dravidian_subgroups.png"> </a> </div>amanhttp://www.blogger.com/profile/02881811537104113269noreply@blogger.com0