Monday, June 16, 2014

शम्बूक वध का सच (Truth of Shambuk Vadha)

वाल्मीकि रामायण में पुरुषोत्तम राम निश्चित ही सबसे बड़े आदर्श हैं, क्योंकि वाल्मीकि का ध्येय ही एक आदर्श पुरुष के चरित्र का वर्णन था, ऐसा आदर्श कि समाज के सामने हमेशा एक ऐसा चरित्र रहे कि समाज के बच्चे, वयस्क और वृद्ध सभी उस आदर्श का अनुसरण कर सकें, ताकि समाज सुखी रह सके। वाल्मीकि उस समय अर्थात आज से लगभग ६००० वर्ष पहले ( महाभारत ही आज से ५००० वर्ष पहले हुआ था) मानव के मनोविज्ञान का और उसके व्यवहार का इतना गहरा सत्य समझ गए थे कि हम मानवों को समुचित विकास के लिये कुछ आदर्शों की अनिवार्यत: आवश्यकता होती है। यदि हम बच्चों को ऊँचे आदर्श नहीं देंगे तब वे टीवी से नचैय्यों गवैय्यों को अनजाने ही अपना आदर्श बना लेंगे, उनके कपड़ों या फ़ैशन की, उनके (झूठे) खानपान की, उनकी जीवन शैली की नकल करने लगेंगे। वाल्मीकि रामायण के राम का यह आदर्श इतना सशक्त बना कि राम हिन्दू धर्म के न केवल आदर्श बने वरन वे हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि बन गए, राम की‌ ऊँचाई से हिन्दू धर्म की‌ ऊंचाई नापी‌ जाने लगी । ऐसे ऊँचे आदर्श को गिराने से हिन्दू धर्म पर चोट पहुँचेगी और उसके अनुयायी अन्य धर्म को स्वीकार कर लेंगे, इस विश्वास के आधार पर हमारे शत्रुओं ने दो झूठी, किन्तु आदर्श -सी दीखने वाली घटनाएं रामायण में बहुत रोचक तथा विश्वसनीय बनाकर डालीं। घटनाओं को उसी रामायण में इतनी कुशलता से जोड़ देना कि पाठक को संदेह भी न हो और राम के पुरुषोत्तमत्व पर भी धब्बा लग जाए – सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे – यही तो प्रक्षेप या चोरी से माल डालने वाले ‘शत्रु -चोरों’ का कौशल है, जिसमें उऩ्होंने आशातीत सफ़लता पाई है। रामायण में अनेक प्रक्षेप हैं, इस समय मैं उत्तरकाण्ड के दो बहुत ही‌ महत्वपूर्ण प्रक्षेपों की चर्चा करूंगा -
१. श्री राम ने लोकनिंदा के भय से सीता जी को, वह भी जब वे गर्भवती थीं, वन में भेज दिया था। २. श्री राम ने एक शूद्र व्यक्ति शम्बूक का वध किया था क्योंकि वह तपस्या कर रहा था !
सीता जी की अग्नि परीक्षा पर एक टिप्पणी उचित होगी। इस विषय को लेकर भी राम पर आक्षेप लगाए जाते हैं – राम पुरुषवादी थे, वाल्मीकि पुरुष वादी थे इसीलिये उऩ्होंने सीता जी की अग्नि परीक्षा तो करवाई, राम की कोई परीक्षा नहीं करवाई। पूरी रामायण में ऐसी एक भी‌ घटना नहीं है कि जिस से राम के चरित्र पर तनिक सा भी संदेह हो सके, वरन ऐसी घटनाएं‌ हैं जिनसे उनके एक पत्नीव्रत की दृढ़ता बढ़ती है। जब कि सीता जी रावण के अधिकार में थीं इसलिये उन पर कुछ भोले भाले लोग संदेह कर सकते हैं, समझदार तो नहीं करेगा, क्योंकि रामायण में पुन: कहीं कोई ऐसी घटना नहीं है कि जिससे ऐसा संदेह सीता पर हो । दृष्टव्य यह है कि यह संदेह वास्तव में सीता पर न होकर रावण के राक्षसत्व पर हो सकता है। इसलिये संदेह न तो सीता पर है और न राम पर, अतएव इसमें पुरुष के अहंकारी होने का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिये । किन्तु कुछ शत्रु हैं जो ऐसा प्रश्न उठाने के बहाने वास्तव में राम पर पुरुषवादी होने का आरोप लगाते हैं। अग्नि परीक्षा का ध्येय तो स्पष्ट है कि राम और सीता जी दोनों को लोकापवाद से बचाना। जब हम भोले भाले लोग उन पर लगे झूठे लोकापवाद को अग्निपरीक्षा के बाद भी मान सकते हैं तब बिना अग्निपरीक्षा के मानना तो बहुत ही सरल होता। कहावत है, ‘सीज़र्स वाइफ़ शुड बी बियांड डाउट’, – राजा की पत्नी के ऊपर कोई भी संदेह नहीं होना चाहिये। हमारे यहां भी मानते हैं, ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्तदेवेतरो जन: ‘ के अनुसार श्रेष्ठ लोगों के कार्य अनुकरणीय हैं। ऐसे ही आरोपों से बचने के लिये तो अग्नि परीक्षा जैसी कठोर परीक्षा की गई थी । इन तार्किक विचारों को भुलाकर जो आरोप लगाते हैं, या अग्नि परीक्षा करवाने के लिये वाल्मीकि या राम पर दोषारोपण करते हैं, वे या तो भोले भाले लोग हैं‌ या हमारे शत्रु हैं ।
हम लोग लिखे शब्द और बचपन से सुनी बातों पर इतना अधिक विश्वास करते हैं कि उसे मान लेते हैं और उसे सिद्ध करने के लिये तर्कों का आविष्कार करने लगते हैं। और यह झूठी कहानी तो मिथिला के ही नहीं सारे भारत के लोक गीतों में अर्थात जनमानस में पैठ गई है। मिथिला में तो यह प्रचलित व्यवहार है कि वे लोग अवध क्षेत्र में अपनी कन्या का विवाह ही‌ नहीं करते ! आज की पढ़ी लिखी महिलाएं भी राम को पुरुषवादी‌ मानती हैं ! इस झूठी घटना को विश्वसनीय बनाने में उस शत्रु-चोर लेखक का कौशल ही इसमें सहायता करता है। कुशल साहित्यिक एक झूठ (काल्पनिक घटना या चरित्र कॊ) को विश्वसनीय बनाकर प्रस्तुत करता है – कहानी, नाटक और उपन्यास आदि में सभी साहित्यिक यही तो करते हैं। यदि उस साहित्यिक का उद्देश्य समाज का सच्चा हित हो तब वह साहित्यिक सम्मान पाता है; किन्तु यदि न हो तब उसे तिरस्कार ही मिलना चाहिये। इस झूठे प्रक्षेप में इसकी विश्वसनीयता तथा स्वीकार्यता बढ़ाने के लिये अनेक तरकीबें लगाई गई हैं; उदाहरणार्थ, प्रक्षेपित उत्तरकाण्ड में ब्राह्मणों की‌ श्राप देने की शक्ति का रोचक वर्णन किया गया है,और उऩ्हें दान देने की महिमा और प्रशंसा भी दिलखोल कर की गई है, उऩ्हें बहुत शक्ति शाली तथा बहुत अधिक सम्माननीय बतलाया गया है।
बहुत से पाठक और यहां तक कि विद्वान भी श्री राम के शम्बूक वध तथा सीताजी के वनवास की घटनाओं को सिद्ध करने के लिये तरह तरह के तर्क दे रहे हैं। जब यह दोनों घटनाएं श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र तथा कार्यों के साथ तनिक भी‌ मेल नहीं खातीं और न महर्षि वाल्मीकि के घोषित उद्देश्यों से मेल खाती हैं, तब भी हम क्यों उन पर विश्वास कर लेते हैं और उल्टे सीधे तर्कों द्वारा सिद्ध करते रहते हैं। एक विद्वान ने तो मुझे यह तर्क भी दे दिया कि चूंकि उत्तर काण्ड की घटना राम के पहले वर्णित चरित्र से मेल नहीं खाती इसीलिये तो राम का चरित्र वास्तविक लगता है, आखिर हम आयु के साथ बदलते तो हैं; उनके चरित्र में‌ यह असंगति ( इनकन्सिस्टैन्सी) ही तो लेखक की शक्ति है। मैं तो यह सुनकर अवाक रह गया था; मुझे लगा कि यह तो तर्क से भी परे है, यह उनके अंदर पड़े पुरुष के परस्त्री गमन के प्रति अटूट विश्वास पर आधारित है, अर्थात उऩ्हें और इसलिये राम को भी शतप्रतिशत विश्वास है कि रावण ने अवश्य ही वह दुष्कृत्य सीता जी के साथ किया होगा। अतएव राम ने सीता को अवश्य ही‌ वनवास दिया होगा। ऐसा विश्वास बहुत अधिक आश्चर्य की बात तो है, और यह भी‌ दर्शाती‌ है कि हमारी सोच अवैज्ञानिक है, हमने उचित प्रश्न करना और समाधान सोचना छोड़ दिया है।
इसके अपवादस्वरूप आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी ऐसी घटनाओं‌ पर बहुत ही सधे व्यंग्य करते हैं, उसके लिये उपयुक्त ताने मारते हैं। भवभूति ने अपनी रचना की दृष्टि को बतलाने के लिये लिखा था कि वे राम की समग्रता को अभिव्यक्त करना चाहते हैं, मानों कि वाल्मीकि अपनी दृष्टि के अनुकूल राम को समग्रता में अभिव्यक्त नहीं कर पाए थे । यह भवभूति का अहंकार या दुस्साहस तो है, इसलिये इस पर शास्त्री जी द्वारा व्यंग्य करना ही उचित है। शास्त्री‌जी स्पष्ट भी कह देते हैं, “ चारित्रिक समग्रता को ऐसे नहीं कूता जा सकता है। ‘महावीर’ (भवभूति रचित ‘महावीर चरित’ और ‘उत्तर रामचरित’) राम का पूरा पर्याय नहीं हो सकता। भवभूति कुछ अधिक विशेषण उछालते हैं तो इससे राम अधिक विशिष्ट कहीं नहीं उभर पाते । शब्दाडम्बर वीरत्व पर हावी हो भी‌ जाए, ऐसे राम की आंशिक समग्रता मर्म को मथती‌ नहीं है।” सीता के राम द्वारा वनवास दिये जाने की घटना पर शास्त्री जी फ़िर व्यंग्य करते हैं, “ यह सीता क्या कोई निरी वस्तु है जिसे राम जब चाहें रखें, जब चाहें छोड़ दें ? और जब वाल्मीकि के (पुन: झूठा और प्रक्षेपित) राम कैकेयी माता से कहते हैं कि वे तो उनके कहने मात्र से सीता को और अपने प्राणों को भरत के लिये दे सकते हैं। तब शास्त्री‌जी व्यंग्य करते हैं, राम सीता को अपने पास रखें या भरत को दे दें! यह कैसी‌ निरपेक्षता है ? सर्वस्व त्याग इतना निर्मम हो सकता है ? पितृभक्ति या सौतेली‌ माँ ही सही किसी‌ माँ के प्रति अन्धभक्ति इस हद तक अन्धी हो सकती है ? और . . .इस तरह वाल्मीकि के (प्रक्षेपित) राम तो सीता को दुनिय़ा का सस्ते दामों बिका माल बना देते हैं. . . . यदि राम ऐसा कहते हैं तो सीता ज़रूर पिंजरे की मैना होगी !” यह व्यंग्य स्पष्ट है क्योंकि सीता जी शेष चरित्र में शक्तिशाली, आत्मविश्वासी तथा आत्मसम्मानी हैं। अर्थात ऐसे राम वाल्मीकि के आदर्श तो नहीं‌ हो सकते, अर्थात वाल्मीकि ने ऐसा रामायण में नहीं कहा, अर्थात यह वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में बाहर से डाला गया है, प्रक्षेप है।. . .फ़िर आगे शास्त्री जी भवभूति के प्रयास पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं, “ राम की समग्रता की पूरी‌ परख ‘साइको ऎनालिसिस मात्र मनोविश्लेषण के सिद्धान्तो के आधार पर सम्भव नहीं है।” इस तरह यद्यपि शास्त्री जी भवभूति को व्यंग्य में करारी फ़टकार देते हैं। यह तो सभी पाठक मानते हैं कि भवभूति के मनोविश्लेषण के कारण वे उनके वर्णन को बहुत रुचि के साथ पढ़ते हैं, अर्थात वास्तव में‌ भवभूति ने वाल्मीकि के आदर्श चरित्रों को उनके आदर्शों की कीमत पर ‘पापुलर’ बना दिया। यह अधिकार तो साहित्यिक को नहीं है कि वह अन्य साहित्यिक द्वारा रचे चरित्रों को उलट दे और इस तरह उलट दे कि समाज का अहित हो ! वैसे आजकल अनेकानेक साहित्यिक रामायण तथा महाभारत के चरित्रों को लेकर उनका विकास अपनी विचारधारा के अनुसार, विशेषकर पूंज़ीवादी या सामयवादी सोच के अनुसार बदल देते हैं। साहित्यकारों को पूरा अधिकार है कि वे मनचाही रचना करें, किन्तु अन्य की रचना के ध्येयों के विरोध में या अपनी विचारधारा के प्रचार हेतु उसके चरित्रों को भ्रष्ट करने का अधिकार तो उनका नहीं है। यदि वे ऐसा करते हैं तो वास्तव में साहित्यकार कहलाने का अधिकार उऩ्हें‌ नहीं मिलना चाहिये; कम से कम हमें ऐसे तथाकथित साहित्यकारों से बचना तो चाहिये ही।
अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया जा रहा है कि वाल्मीकि रामायण का पूरा उत्तर काण्ड ही किसी अन्य साहित्यिक ने शत्रुता वश चोरी से डाला है, यह चोरी उन दिनों बहुत ही सरल थी जब मुद्रण व्यवस्था ही नहीं थी, सारा साहित्य हाथों द्वारा ही लिखा जाता था। मूल लेखक एक प्रति लिखता था और अन्य प्रतियां हाथों द्वारा ही लिखी‌ या लिखवाई जाती थीं। इसलिये इस महत्वपूर्ण विषय पर तर्क संगत विचार करना अवश्यक है।
पहला प्रमाण, वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का समापन पढ़ने से यह तो एकदम स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकि रामायण वहीं पर समाप्त हो जाती है। वहां लिखा है कि राज्याभिषेक के पश्चात श्री राम ने ११,००० वर्ष राज्य किया। अभी इस विवाद में‌ न पड़ें कि वे ११००० वर्ष राज्य कैसे कर सकते थे । कवि द्वारा इसे उनकी अतिशयोक्ति समझें – उऩ्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया, क्योंकि शब्द ‘हजारों’ का आधिक्य दर्शाने के लिये उपयोग बहुत प्रचलित था और अभी भी ऐसे उपयोग के हजारों उदाहरण मिलते है। इस एक वाक्य से, ‘कि ११००० वर्ष सुखपूर्वक राज्य किया’, ही स्पष्ट है कि रामायण का समापन हो गया; अब और कोई महत्वपूर्ण या दुखद घटना की‌ बात नहीं होना है।
दूसरा, युद्ध काण्ड के समापन पर रामायण पाठ की फ़लश्रुति आ जाती है – ‘जो भी इस रामायण का पाठ या श्रवण करेगा उसे बहुत पुण्य मिलेगा’ इत्यादि। जब नारद जी वाल्मीकि को राम कथा सुनाते हैं तब वहां भी फ़लश्रुति है, किसी‌ अन्य काण्ड के अंत में फ़लश्रुति नहीं है। पारंपरिक फ़लश्रुति ग्रन्थों के अंत में‌ आती हैं। अर्थात वाल्मीकि रामायण का समापन युद्धकाण्ड के बाद हो गया। तब इसके बाद उत्तरकाण्ड के लिखे जाने की‌ बात ही नहीं‌ बनती। इसके विरोध में भी तर्क दिये जाते हैं कि फ़लश्रुति लिखने की परंपरा वाल्मीकि के काल में‌ नहीं थी, अत: यह प्रक्षेप है। जब रामायण विश्व का प्रथम काव्य है तब इसमें परम्परा की‌ बात करना ही ऐसे व्यक्ति की नियत पर संदेह पैदा करता है। वे तो परम्परा स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। जब वाल्मीकि का ध्येय ही एक आदर्श चरित्र प्रस्तुत करना था तब फ़लश्रुति तो वहां स्वाभाविक लगती है। खैर, यदि हम तर्क के लिये मान भी लें कि फ़लश्रुति बाद में लिखी गई, तब भी यह तो निश्चित है कि वह फ़लश्रुति इस उत्तर काण्ड के प्रक्षेप के पहले लिखी गई थी। और यदि फ़लश्रुति उत्तरकाण्ड के प्रक्षेप के बाद लिखी गई होती तब तो उसे उत्तर काण्ड के बाद ही होना था, न कि युद्ध काण्ड के पश्चात ! अच्छा हुआ कि वह चोर शत्रु युद्धकाण्ड के अंत से ‘फ़लश्रुति’ निकालना भूल गया, वरना उसके चोरी की‌ विश्वसनीयता और बढ़ जाती। चोर अपनी चोरी के हमेशा कुछ न कुछ निशान छोड़ ही देता है।
तीसरा, उत्तरकाण्ड में जो वर्णन है वह अधिकतर जादू या वीभत्स घटनाओं के वर्णन के कारण अत्यंत रुचिकर होते हुए भी नितान्त अविश्वसनीय है, जो रामायण की पूरी रचना से बिलकुल मेल नहीं खाता। पहले तो उसमें रावण ही नहीं‌ वरन समस्त राक्षस जाति का इतिहास है। जब मूल रामायण मुख्यत: राजा दशरथ के जीवन से ही प्रारंभ होती‌ है न कि इक्ष्वाकु वंश या ककुत्स्थ से, और रावण के जीवन का मूल रामायण में पर्याप्त वर्णन है तब राक्षसों के पूरे इतिहास के वर्णन का रामायण में औचित्य ही नहीं‌ बनता। मूल रामायण के ‘बाक्स आफ़िस हिट’ बनने के बाद, फ़िल्म के ‘सीक्वैल’ की तरह उनके विषय में अतार्किक और जादुई (विज्ञान गल्प या फ़ैन्टैसी कथा?) घटनाओं का वर्णन कर पहले तो पाठकों को आकर्षित करना, फ़िर राम की उदात्तता या आदर्श पर चोट करना इस झूठे प्रक्षेप का प्रमुख ध्येय था । एतदर्थ उऩ्होंने दो संवेदनशील विषय चुने – एक, चरित्रवान और गर्भवती स्त्री‌ पर अत्याचार और दूसरा, निर्दोष तपस्वी शूद्र की‌ हत्या, वह भी स्वयं राजा राम के द्वारा।
चौथा, प्रक्षेपित अर्थात चोरी से डाले गए उत्तर काण्ड में कुछ वर्णन ऐसे हैं जो मूल रामायण के उद्देश्यों से न केवल मेल नहीं खाते, वरन उनका विरोध करते हैं । उदाहरण के लिये उत्तर काण्ड में वर्णित है कि, ‘श्री राम प्रतिदिन आधा दिन राज्य कार्य करने के बाद एक अत्यंत सुन्दर बाग में आते हैं, जहां गायिकाएं तथा नर्तकियां उनका तथा सीता जी का मनोरंजन करती हैं। वहां राम मदिरा पान करते हैं, और तो और वे अपने हाथों से सीता जी को भी‌ मदिरा पान कराते हैं, और नर्तकियां आदि भी मदिरा पान कर मद से मस्त होती‌ हैं। और मद से वे जितनी प्रभावित होती‌ हैं, राम के वे उतने ही निकट नृत्य करती हैं !’ रामायण के किसी‌ भी समझदार पाठक के लिये इतना वर्णन ही इस उत्तर काण्ड को प्रक्षेप अर्थात ‘चोरी’ समझने के लिये पर्याप्त है।
पाँचवां, जब राजा से उत्तम न्याय की अपेक्षा हो और वह ऐसा न्याय कर दे जो नितान्त अन्याय हो तब उस राजा को कोई भी मूर्ख के अतिरिक्त क्या मानेगा ! न्याय के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि दोनों पक्षों, आरोपी तथा अभियुक्त, को सुना जाए। इस राजा ने तो एक भी पक्ष को नहीं सुना। एक पक्ष को विश्वसनीय सूत्रों द्वारा सुनने को भी नियमों के अनुसार’हियरसे’ अर्थात ‘कही सुनी‌ बात’ माना जाता है, उसे प्रमाण नहीं माना जात। यह न्यायिक पद्धति तो नहीं कि अभियुक्त को न केवल आरोप लगाने वाले से प्रश्न करने का अवसर न दिया जाए, वरन उसे भी सुना न जाए । प्रश्न करने पर वह आरोपकर्ता ही अपनी गलती स्वीकार कर सकता था – ‘ महाराज जी उस रात्रि तो मैं अपने पूरे होश में‌ नहीं था, या मुझे बहुत ही अधिक क्रोध था।’ यह न भी‌ होता तब भी न्याय प्रक्रिया की मांग है कि अभियुक्त को आरोपी से प्रश्न करने का अधिकार तो मिलना ही चाहिये ।
छठवां, वाल्मीकि रामायण में अहल्या को पता लग जाता है कि उसका भोग करने वाला उसके पति के वेश में कोई और है तब भी वह स्वयं उस भोग में‌पूरा सहयोग देती है। इसीलिये गौतम ऋषि उसे पत्थर बनने का श्राप देते हैं। जो राम निश्चित रूप से दोषी अहल्या को उनके पति की श्राप से मुक्त कर सकता है, क्या वही राम जानते हुए कि उसकी पत्नी निर्दोष है एक झूठी अफ़वाह के आधार पर उसे वन में निष्कासित कर सकता है, कदापि नहीं, हां, शत्रु द्वारा रचित झूठा प्रक्षेपित अहंकारी और पुरुषवादी राम तो ऐसा ही करेगा !
सातवां, सीता जी की कठोर अग्नि परीक्षा हो चुकी थी जिसका एकमात्र उद्देश्य यही था कि जनता सीता के निर्दोष होने पर संदेह ही न करे, और अग्निदेव ने सीता जी को पूर्ण रूप से निर्दोष सिद्ध किया था। अग्निपरीक्षा सरीखी अनोखी और मर्मान्तक घटना का प्रचार तो स्वयं ही हो गया होगा, अन्यथा राम का कर्तव्य बनता था कि वे इस सत्य का प्रचार करवाते क्योंकि उनके पास एक से एक विश्वसनीय साक्षी थे । जब असत्य जनसमाज मैं फ़ैला हो तब असत्य का विरोध तथा सत्य का प्रचार करना भी राजा का और राज्य का महत्वपूर्ण कर्तव्य होता है, न कि अफ़वाहों से डरकर अन्याय करना ! जब न्यायाधीश को मालूम हो कि ‘सुप्रीम कोर्ट’ (अग्नि परीक्षा) ने एक निर्णय दे दिया है तब छोटे न्यायालय के लिये उसको मान्यता देना अनिवार्य होता है, अन्यथा वह सर्वोच्च न्यायालय की मानहानि बन जाता है। अग्निदेव की ऐसी मानहानि करने वाला झूठे प्रक्षेपवाला राम तो महामूर्ख न्यायाधीश है।
आठवां, न्यायाधीश को इतना तो स्पष्ट करवाना ही था कि कहीं वह ‘धोबी’ अग्नि परीक्षा के अज्ञान में अपनी‌ बात तो नहीं कह गया, इस झूठ- प्रक्षेपित राम ने वह भी नहीं करवाया । उत्तर रामचरित में यह भी इंगित किया गया है कि सीता जी वन में जाने को सहर्ष तैयार हो जातीं यदि राम उऩ्हें यह आदर्श समझाते; तब भी राम सीता से वनवास का इशारा भी नहीं करते। अर्थात भवभूति के राम या तो राजा बनने के योग्य नहीं हैं‌ या घोर पुरुषवादी हैं, अहंकारी हैं,स्वकेन्द्रित हैं, मूर्ख हैं। इस कथा से भवभूति का उद्देश्य यही‌ दिखता है, जिसमें उऩ्हें करुणरस सिद्धि के फ़लस्वरूप आशातीत सफ़लता मिली। करुण रस में‌ डूबा व्यक्ति तर्क नहीं करता ।
नौवां, सामान्यतया जो भी तर्क सीता- वनवास के पक्ष में दिये जाते हैं वे भवभूति के उत्तर रामचरित से लिये गए दिखते हैं, क्योंकि न केवल वह बहुत ही प्रभावी है वरन उसका प्रचार अंग्रेजो के शासनकाल में‌ और ‘समाजवादी स्वतंत्र भारत में भी खूब किया गया और उसे लोकप्रिय नाटक बनाया गया। भावुकता मानव का एक संवेदनशील गुण है, किन्तु अधिक भावुकता तो मनुष्य की बुद्धि पर ग्रहण लगा देती है जो एक राजा के लिये नितांत अवांछनीय है। राम को भवभूति ने इतना ऊँचा भावुक आदर्श पुरुष बना दिया है कि जब राम लक्ष्मण को सीता जी‌ को वन में‌ छोड़ने का आदेश देते हैं तब लक्ष्मण उऩ्हें अग्नि परीक्षा का स्मरण कराते हैं; उस पर राम कहते हैं कि वे प्रजा के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर रहे हैं क्योंकि राजा और उसके कार्यों के प्रति प्रजा में तनिक भी संदेह नहीं होना चाहियॆ, और इसके लिये वे बड़ा से बड़ा त्याग करने को तत्पर हैं। एक तो ऐसी सोच कि ‘प्रजा में तनिक भी संदेह नहीं होना चाहियॆ’ अव्यावहारिक है और गलत है। अज्ञान में, या भोलेपन में लोगों का संदेह करना बहुत स्वाभाविक है। दूसरे, यदि संदेह हैं, तब उऩ्हें संदेह दूर करना चाहिये। किन्तु प्रक्षेपित राम के इस त्याग से संदेह तो दूर नहीं हुआ, वरन सीता का दोषी होना सिद्ध हो गया। लोक में राजा या उसके कार्यों के प्रति तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिये, किन्तु क्या उस संदेह को दूर करने के लिये जनता को अग्निपरीक्षा का सत्य ज्ञान देना उचित तथा पर्याप्त नहीं होता ! वह तो उनका परम कर्तव्य बनता था। झूठ-प्रक्षेपित राजा राम तो बार बार मूर्ख ही सिद्ध होता है।
भवभूति का किसी काल्पनिक घटना को विश्वसनीय बनाने की कला का यह उदाहरण इतना सशक्त है कि अच्छे से अच्छे विद्वान भी इसके बहाव में‌ बहकर उन पर विश्वास करने लग जाते हैं। इतने ऊँचे (?) भावुक आदर्श राजा, भवभूति जैसे करुण रस के सिद्ध कवि द्वारा वर्णित तो साहित्य में‌ ही हो सकते हैं, जीवन में नहीं। यथार्थ के जीवन में ऐसे आदर्शवादी राम जब न्यायाधीश की पीठ पर आसीन हैं तब वे अपने आदर्शों के अनुरूप निर्णय तो ले सकते हैं किन्तु उसके लिये उऩ्हें न्यायिक प्रक्रिया पूरी करना ही चाहिये। भवभूति के प्रक्षेपित राम तो बिना किसी पक्ष को सुने केवल सुनी हुई बात के आधार पर प्रथम सुबह ही सीता को चुपचाप त्याग देते हैं। मंत्रिमण्डल न सही, अपने गुरु वशिष्ठ से सलाह ले सकते थे, और इसमें इतनी शीघ्रता की आवश्यकता भी समझ में नहीं आती, सिवाय इसके कि झूठ- प्रक्षेपित राम मदक्की थे।
दसवां, यह प्रश्न मात्र उनके व्यक्तिगत जीवन का नहीं था, इसमें प्रजा के हित का प्रश्न था। कोई भी यह कैसे मान सकता है कि राजा की किसी भी नीति से या कर्म का एक व्यक्ति भी विरोध नहीं करेगा ! हजारों तरह के व्यक्ति होते हैं, उनकी‌ हजारों तरह की सोच होती है। अन्य जनता जिसे ‘अग्नि परीक्षा’ याद है, राम द्वारा सीता जी को वनवास दिये गए इस त्याग से क्या निष्कर्ष निकालेगी ? क्या उसे दुख नहीं होगा कि उनके आदर्श राजा राम ने अपनी निर्दोष पत्नी को एक अफ़वाह के आधार पर या बिना किसी कारण के वनवास दे दिया ? वे इस घटना से क्या सीखेंगे ? पत्नियों की क्या दशा होगी? क्या वे ऐसे राजा के राज्य में अपने को सुरक्षित अनुभव करेंगी‌? क्या कोई भी‌ मनुष्य किसी‌ भी‌ बात पर राम का उदाहरण देकर अपनी पत्नी को निष्कासित नहीं कर सकेगा ? अधिकांश जनता ने तो राम पर कोई भी आरोप नहीं लगया था, तब उनमें से किसी‌ने क्यों नहीं इसका प्रतिवाद किया? यह चूक फ़िर उस शत्रु से हो गई जिसने प्रक्षेप डाला था। ऐसे अव्यावहारिक आदर्श के साथ तो कोई भी राज्य नहीं कर सकता, अत: राम राजा बनने के योग्य नहीं थे – यही तो उद्देश्य है उन शत्रु साहित्यिक चोरों का ।
ग्यारहवां, यदि सीता को लोकनिंदा के भय से त्यागा था तब जनता में उसकी घोषणा करवाना भी तो आवश्यक होता, ताकि जनता उससे कुछ सीखे। कम से कम उस धोबी को तो संदेश पहुँचाना चाहिये था जिसके आरोप के कारण उऩ्होंने इतना बड़ा त्याग किया था। ऐसा भी राम ने नहीं किया, उऩ्होंने छलपूर्वक चुपचाप सीता जी को वन भेज दिया, जो और भी घृणित था। ऐसा झूठ- प्रक्षेपित न्यायाधीश राम तो पुरुष के अहंकार में रहने वाला, सती स्त्री को यंत्रणा देने वाला तथा मूर्ख और अतिभावुक सिद्ध होता है।
बारहवां, यदि यह वर्णन राम के शेष चरित्र से मेल खाता तो भी हम इस संदेश को मान सकते थे, किन्तु न केवल यह मेल नहीं खाता वरन उनके छ काण्डों के राम से पूरा का पूरा ही विरोध करता है । यही तो प्रक्षेप डालने वाले शत्रु का उद्देश्य था।
तेरहवां, लिखने के पूर्व वाल्मीकि को श्री राम की कथा ज्ञात नहीं थी। वह तो वाल्मीकि के ही अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने नारद जी को उनके पास श्री राम की कथा सुनाने के लिये भेजा था। नारद मुनि जो कथा वाल्मीकि को सुनाते हैं वह महर्षि वाल्मीकि जी ने बाल काण्ड में ही लिख दी है। उस कथा में ‘उत्तर काण्ड नहीं‌ है। तब वाल्मीकि कैसे अपनी रामायण में उत्तर काण्ड लिख सकते हैं‌ ! अर्थात यह उत्तर काण्ड प्रक्षेप है।
चौदहवां,महर्षि व्यास के महाभारत में भी रामायण है, और उसमें भी उत्तर काण्ड नहीं‌ है। अर्थात यह प्रक्षेप महाभारत की रचना के बाद डाला गया। कब डाला गया ?
पन्द्रहवां, चरित्रवान स्त्री पर अत्याचार की आधारभूमि तो चोरों ने पद्मपुराण आदि अनेक ग्रन्थों में भवभूति के पहले ही तैयार कर दी थी । मैं भवभूति का उदाहरण इसलिये ले रहा हूं क्योंकि वह बहुत प्रभावी है, लोकप्रिय है, और संस्कृत के स्नातकोत्तर शिक्षा के पाठ्यक्रम में अंग्रेजों के समय से ही पढ़ाया जाता रहा है। भवभूति ने अद्भुत कल्पना तथा सृजनशीलता का दुरुपयोग करते हुए ‘उत्तर रामचरित’ नाटक लिखा। अपने गलत उद्देश्य को विश्वसनीय बनाने के लिये एक बहुत ही रससिक्त और रोचक रचना की जाती है। भवभूति का उत्तररामचरित ऐसा ही ग्रन्थ है। इसका सिद्धान्तन तो विरोध नहीं किया जा सकता क्योंकि यह तो साहित्यकार का जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह रचना करने के लिये स्वतंत्र है। किन्तु हमें उसके कुप्रचारात्मक दृष्टिकोण से सावधान तो रहना ही चाहिये। इस नाटक में करुणरस के सिद्ध कवि भवभूति ने सीता जी को इतनी करुणाजनक स्थिति में दर्शाया है कि पाठक आँसू‌ बहा बहाकर भवभूति की प्रशंसा करे । इसके लिये उऩ्होंने राम के द्वारा गर्भवती सीता को वन में निष्कासित किया क्योंकि एक धोबी (या अनेक जन) उन पर लांछन लगा रहे थे। और देखिये उनका कौशल कि राम को बदनाम करने के ध्येय को छिपाने के लिये राम को एक तरह से लोक का सम्मान करने वाला राजा घोषित कर दिया, तथा सबसे बड़ा त्याग करने वाला भी। प्रत्यक्ष में उऩ्होंने राम की बुराई नहीं की, किन्तु अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावी रूप से राम को पुरुषवादी, मूर्ख और स्त्री का अपमान करने वाला सिद्ध कर दिया। अरे भाई, जो राजा अपनी पत्नी को सती जानते हुए और वह भी गर्भवती अवस्था में मात्र कुछ अज्ञानी लोगों के गलत विचारों के ‘सम्मान’ के लिये जंगल भेज दे, वह स्त्री जति का अपमान करने वाला पुरुषवादी या मूर्ख नहीं तो और क्या हो सकता है ! यदि वे संतान के जन्म तक रुक नहीं सकते थे तो गुरु से या अन्य मंत्रियों से सलाह तो ले सकते थे । वैसे, तुलसीकृत रामचरित मानस में दो बालकों का जन्म अयोध्या के महलों में ही‌ होता है, जिसका वर्णन मात्र एक चौपाई में किया गया है।
भवभूति के पहले भी राम की अनेक कथाओं में, साहित्यिक कृतियों और पुराणों में यह ‘झूठी घटना’ मिलती है, विशेषकर पम्म पुराण में और पद्मपुराण में। और मजे की बात यह कि व्यास जी ने महाभारत की रचना की और १८ पुराणों की भी। महाभारत में जो रामकथा वर्णित है उसमें तो सीता वनवास या शम्बूक वध की छाया भी नहीं है; और पद्मपुराण में यह दोनों कथाएं हैं। अर्थात पुराणों में भी भयंकर प्रक्षेप हैं। और इऩ्ही पुराणों के प्रक्षेपों के आधार पर कुछ साहित्यिकों ने ‘सीता के वनवास’ वाली कथा को लिया है। फ़िर भी यह शोध का विषय तो है कि ऐसा झूठ- प्रक्षेप पहली बार किसने और कहां डाला ।
वाल्मीकि रामायण को आधार बनाकर सैकड़ों रचनाएं लिखी गई हैं, जिनमें मनमाना परिवर्तन किया गया है। बीसवीं के प्रारंभ तक वाल्मीकि रामयण के भारत में कम से कम चार भिन्न संस्करण चल रहे थे – उत्तरी, पूर्वी, दक्षिणी तथा पश्चिमी संस्करण, किन्तु इनमें विशेष महत्वपूर्ण अन्तर नहीं‌ हैं।। बौद्ध रामयण ‘दशरथ जातक कथा के रूप में आती है, इसमें दशरथ की पुत्री भी है, ‘शान्ता’, जिससे दशरथ के ही पुत्र राम, अनेक घटनाओं के बाद, विवाह करते हैं – बौद्ध रामायण का उद्देश्य तो स्पष्ट ही झूठी घटना के द्वारा राम को कलंकित करना है,क्योंकि पुराणों के अनुसार शान्ता राजा रोमपाद की पुत्री‌ है, जिसका विवाह वे ऋषि ऋष्यश्रंग से करते हैं। एक जैन रामायण भी है जिसमें राम अंत में जैन मुनि बन जाते हैं और सीता भी कलंकित होते हुए और अपने पर हुए दुर्व्यवहार के कारण निराश होकर जैन साध्वी‌ बन जाती हैं। इसमें न तो स्वर्ण मृग की घटना है और न अश्वमेध यज्ञ की, क्योंकि ये हिंसात्मक घटनाएं हैं, जैन रामायण का उद्देश्य तो हिदू धर्म की‌ मनगढ़न्त बुराइयां गढ़कर जैन धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करना है। राम को जैन बनने पर मोक्ष मिल जाता है किन्तु सीता को जैन साध्वी‌ बनने के बाद भी मोक्ष नहीं मिलता, क्योंकि जैन धर्म में नारी को मोक्ष मिल ही‌ नहीं सकता। सीता को मोक्ष के लिये अगले किसी जन्म में पुरुष का जन्म लेना पड़ेगा।
पद्म पुराण की रामायण में‌ भी विचित्र घटनाए हैं। पद्मपुराण में‌ इन घटनाओं के तीन रूप हैं; एक में तो राम ११००० वर्ष सुखपूर्वक राज्य करने के बाद सीता को वनवास देते हैं ! इसके उत्तर खण्ड में वर्णन है जिसमें एक सुन्दर बाग का दृश्य है जिसमें नर्तकियां नृत्य कर रही हैं, और मदिरा पान चल रहा है जिसमें राम स्वयं अपने हाथ से सीता जी को मदिरा पिला रहे हैं ! नर्तकियां मस्त होकर राम के निकट आ आकर नृत्य करती हैं। राम सीता जी से पूछते हैं कि उनकी‌ दोहड़ क्या है, अर्थात एक गर्भवती की उत्कट लालसा क्या है? सीता जी कहती हैं के वे एक दिन के लिये किसी ऋषि के आश्रम जाना चाहती हैं।
दूसरे पद्मपुराण में वर्णित उत्तर काण्ड को ग्रन्थकार ने इस सीता – वनवास घटना को स्वयं ही कल्पित घोषित कर दिया है। और तीसरे रूप में जो उत्तरखण्ड है उसमें यह घटना न होकर, श्री राम और अगस्त्यमुनि के संवाद हैं। अर्थात पद्मपुराण के एक रूप में सीता जी के वनवास की घटना प्रक्षेप ही है क्योंकि पद्मपुराण का घोषित उद्देश्य है ‘विष्णु के गुण गान’। कालीदास के रघुवंश में‌ राम सीता को वनवास देते हैं, किन्तु वह वर्णन इतना संक्षेप में‌ है कि उस पर भी विश्वास नहीं होता।
भवभूति ने इस कथा को एक स्वतंत्र नाटक के रूप में‌ प्रस्तुत किया। किन्तु उसकी रचना में उसका उद्देश्य तो स्पष्ट दिखता है। किन्तु यह भी‌ हो सकता है कि वे अपने दो आदर्शवादी नाटकों की असफ़लता के बाद यथार्थवाद पर आ गए हों और अपने काल के किसी राजा का चरित्र का सत्य उऩ्होंने बहुत ही प्रभावी शैली में अभिव्यक्त किया हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उऩ्हें एक स्वतंत्र नाटक लिखना था, न कि स्थापित राम कथा के साथ खिलवाड़ करते । किन्तु उऩ्होंने उत्तर रामचरित में राम की मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि पर कलंक लगाया, वह कार्य निंदनीय है, और इसलिये वे उच्च कोटि के साहित्यकार नहीं माने जा सकते ।।
तुलसी की गीतावली के उत्तरकाण्ड (पद २५) में राम सोचते हैं कि जो १२ वर्ष की अतिरिक्त आयु उऩ्हें उनके पिताश्री के नियत समय के १२ वर्ष पूर्व असमय देहान्त के फ़लस्वरूप मिली है, उसमें वे सीता जी को साथ रखना उचित नहीं समझते, अतएव उऩ्हें‌ वन में वाल्मीकि के आश्रम में‌ भेज देते हैं। यह भी दृष्टव्य है कि सर्वप्रथम यह वर्णन बौद्ध ‘दशरथ जातक कथा’ में मिलता है, यह भयंकर कुतर्क ही लगता है। पहले तो दशरथ जी की मृत्यु बहुत स्वाभाविक थी -प्राणों से भी प्रिय पुत्र के वियोग में मृत्यु होना बहुत स्वाभाविक है। यदि अस्वाभाविक थी, और भाग्य के अनुसार उस समय मृत्यु नहीं लिखी थी तो फ़िर मृत्यु को नहीं ही होना चाहिये था। फ़िर ऐसा कोई भी‌ मान्य नियम नहीं है कि पुत्र को पिता की आयु मिले, वह भी‌ बिना माँगे ! दूसरा, यदि मिल भी गई तब उसमें पत्नी के साथ रहने में कोई दोष कैसे हो सकता है ! यह इतना भयंकर कुतर्क है कि मुझे विश्वास है कि प्रकाण्ड पण्डित शिरोमणि संत तुलसी दास ऐसा सोच भी नहीं सकते थे, विशेषकर इसलिये भी कि जिस विचार को रामचरित मानस में वे पूर्णरूप से अस्वीकार कर चुके थे, उसे वे एक अन्य ग्रन्थ में क्यों लाएंगे ! क्या उऩ्हें स्वयं अपनी विचार शक्ति तथा ज्ञान पर पूरा विश्वास नहीं था ! अत: गीतावली के उत्तरकाण्ड का यह वर्णन भी एक प्रक्षेप ही है ।
भवभूति के पहले नाटक ‘महावीर चरित’ को सम्मान नहीं मिला था; उसमें राम की लगभग वही‌ कथा है जो वाल्मीकि में है। राम उसमें वाल्मीकि रामायण के समान ही एक आदर्श पुरुष हैं, और उसमें उऩ्होंने कुछ नया अवश्य किया है, उदारणार्थ रावण के मंत्री माल्यवान की ‘स्ट्रैटजीज़’या रणनीतियों को विस्तार दिया है। महावीर चरित वाल्मीकि रामायण के चरित्रों के मानसिक विकास को लक्ष्य बनाकर लिखा गया था ।और महावीर चरित में भवभूति नाटक का समापन राज्याभिषेक के बाद कर देते हैं, उसमें सीता वनवास नहीं है। किन्तु वह भाषा तथा कवित्व की दृष्टि से कमजोर था और इसलिये उसकी‌ प्रशंसा नहीं हुई। उनका दूसरा नाटक ‘मालतीमाधव’ भी आदर्शात्मक है। इन दोनों नाटकों को सफ़लता न मिलने के कारण संभवत: भवभूति ने ‘कान्ट्रोवर्शियल’ (विवादस्पद) बनना उचित समझा, और इसमें पद्मपुराण ने उनकी सहायता की। यदि भवभूति को यथार्थवाद पर ही आना था तो किसी समकालीन चरित्र को चुनना था। ऐसा प्रतीत होता है कि भवभूति को अपने समय में उऩ्हें जितनी प्रसिद्धि की आशा थी वह उऩ्हें‌ नहीं मिली, और वे अहंकारी तो थे क्योंकि वे एक स्थान पर लिखते हैं कि उनके समक्ष देवी सरस्वती एक आज्ञाकारी सेविका की तरह उपस्थित रहती‌ हैं। और यह भी लिखा है कि यद्यपि उऩ्हें उचित सम्मान नहीं मिला है किन्तु एक दिन आएगा जब विश्व में कहीं न कहीं उऩ्हें सम्मान मिलेगा। और सम्मान उऩ्हें गुलाम भारत में मिला और स्वतंत्र भारत में भी मिल रहा है। दिल्ली में किसी‌ भी संस्कृत साहित्यकार के नाम पर कोई भी‌ प्रमुख मार्ग या रोड नहीं है, केवल भवभूति के नाम पर एक मार्ग है !
चतुर शत्रु तो वह जो आपका आयुध लेकर आपको मारे, कुछ ब्राह्मणों के अहंकार की दुर्बलता का लाभ लेकर ऐसा मर्मस्पर्शी प्रकरण इतना विश्वसनीय बनाकर डाल दे कि जो प्रत्यक्ष में तो ब्राह्मणों के पक्ष में दिखे, जनमानस के मर्म को स्पर्श करे और परोक्ष रूप से राम की‌ मर्यादा पर चोट करे । स्वयं ब्राह्मण इस पर विश्वास करें। भई वाह क्या चतुर चाल है, प्रशंसा करते ही बनती है।
उत्तर काण्ड की दूसरी कथा (यह भी उत्तररामचरित नाटक में‌ है) में एक ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु हो जाती है, वह ब्राह्मण अहंकारपूर्ण शब्दों में राजा राम को उसके लिये दोषी ठहराता है कि उनके राज्य में कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। प्रक्षेप करने वाला आकाशवाणी भी करवाता है कि राम के राज्य में कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। वह राजा से कहता है कि राजा दोषी को ढूँढ़े और दण्ड दे। और इसे अधिक विश्वसनीय बनाने के लिये नारद जी को भी बीच में डाला, और वे भी अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कहते हैं कि कोई शूद्र अवश्य ही तपस्या कर रहा है, यद्यपि वे उसका स्थान नहीं बतला पाते और बिचारे राम को बहुत स्थानों पर खोज करना पड़ती है।राम शूद्र शम्बूक तपस्वी का वध कर देते हैं। दृष्टव्य है कि जो रामकथा नारद जी वाल्मीकि को सुनाते हैं, न केवल उसमें‌ यह वर्णन नहीं है, वरन उसमें यह स्पष्ट लिखा है कि शूद्र भी रामायण पढ़कर या सुनकर पुण्य प्राप्त कर सकते हैं।
शम्बूक वध की घटना तो निश्चित ही वाल्मीकि के काल की नहीं हो सकती क्योंकि तब तक अनेक उपनिषद लिखे जा चुके थे । उपनिषदों में तो न केवल शूद्रों ने तपस्या की है वरन उनमें से कुछ तो मंत्र दृष्टा बनकर औपनिषदिक ऋषि की‌ गरिमा को प्राप्त हुए हैं, यथा ऐतरेय, सत्यकाम आदि। ऐतरेय एक रखैल के पुत्र थे, उऩ्हें गुरुकुल में शिक्षा द्वारा संस्कार मिले, और उनके द्वारा रचित पूरा ‘ऐतरेय उपनिषद’ ही है जो ऋग्वेद का उपनिषद है। सत्यकाम न केवल शूद्र थे वरन एक अवैध बालक भी थे। इऩ्हें भी गुरुकुल में शिक्षा द्वारा संस्कार मिले और वे ऋषि बने। यह मान्यता भी थी कि ‘जन्मना जायते शूद्र:। संस्कारात द्विज उच्यते।’ जन्म से हम सभी शूद्र हैं, संस्कार पाकर ही‌ हमारा दूसरा जन्म होता है। मानव व्यवहार का इस कथन में एक मनोवैज्ञानिक सत्य छिपा है, बालक को अच्छे संस्कार दो वरना वह ‘शूद्र’, आज के अनुभवों से तो कहना चाहिये कि राक्षस, ही बनेगा। वैसे भी त्रेता और द्वापर युगों में तो जातियां कर्म के आधार पर ही‌ मान्य थीं। स्वयं क्षत्रिय विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि बनना इसका उदाहरण है; उनके ब्रह्मर्षि बनने में उनके क्रोध, अहंकार और ईर्ष्या ही अवरोध थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से चौथे अध्याय में स्पष्ट कहा है :
“चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:”
“मैने मनुष्यों के गुणों और कर्मॊं के अनुसार चार वर्ण रचे हैं।”
महाभारत में तो चाहे एक अजगर प्रश्न करे या यक्ष कि ब्राह्मण कौन है, युधिष्ठिर बार बार यही उत्तर देते हैं कि गुणवान ही‌ ब्राह्मण है चाहे जन्म से वह कोई भी‌ हो । इस उत्तर के बाद सर्प से भीम की मुक्ति होती है, तथा यक्ष से चारों पाण्डवों को प्राणदान मिलता है। मनु स्मृति में लिखा है कि जिसने वेदों का पारायण नहीं किया वह ब्राह्मण नहीं।
उपनिषदों की सारी शिक्षा मानव मात्र के लिये है, किसी धर्म, या जाति या रंग के लिये नहीं, उसके ऋषि तो सब प्राणियों में एकत्व ही देखते हैं। नारद जी ने वाल्मीकि को जो राम कथा सुनाई उसमें वे कहते हैं कि राम ने सभी वेदों का समुचित अध्ययन किया है। समस्त रामायण में श्रीराम के समस्त कार्यों में‌ यही मानव की एकता और प्रेम देखा जा सकता है, वे तो मनुष्य के गुणकर्म देखकर ही यथायोग्य व्यवहार करते हैं। अत: श्री राम को तो एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर अत्यंत प्रसन्न होना था, न कि उसकी ह्त्या करना था। वैसे भी यह तो वही श्री राम हैं जो कि एक भीलनी शबरी से मात्र मिलने के लिये अपने रास्ते से हटकर जाते हैं, उस शबरी के पास कि जिससे मिलने के लिये सूचना एक राक्षस कबन्ध देता है। वही श्री राम जो निषादराज केवट को गले लगाते हैं, उसे प्रिय मित्र कहते हैं। वे चाहते तो नदी पार करने के बाद केवट को पारिश्रमिक (अँगूठी नहीं, जो कि उऩ्होंने दिलवाई) तथा धन्यवाद देकर बिना गले लगाये महान ऋषियों से भेंट करने आगे जा सकते थे, जैसा कि सामान्यतया होता है । किन्तु श्री राम ने केवट को मित्र मानते हुए गले लगाया। वे कैसे एक शूद्र की तपस्या करने के कारण उसकी हत्या कर सकते हैं !
ऐसा सुनने में आया कि शम्बूक वध घटना का उदाहरण देकर डाक्टर अम्बेडकर ने घोषणा की थी कि वे ऐसे हिदू धर्म का सम्मान नहीं कर सकते, जिसमें राजा राम एक शूद्र का तपस्या करने के कारण वध कर देता है। काश किसी‌ विद्वान ने उऩ्हें सत्य का परिचय कराया होता, तो आज जो गलत तथा दुखद भेद दलितों तथा अन्य में‌ हो गया है वह न होता। रामायण में उस प्रक्षेप डालने वाले शत्रु ने हिंदू धर्म पर कितना बड़ा सफ़ल प्रहार किया है; उसके कौशल की प्रशंसा करते ही‌ बनती है,और हमारे सही न सोचने की जितनी निंदा की जाए,उतनी कम है।
महर्षि वाल्मीकि का ध्येय तो उस वास्तविक मनुष्य के चरित्र पर महाकाव्य लिखना था कि जो आदर्श हो । नारद जी उऩ्हें ऐसे आदर्श व्यक्ति श्री राम का परिचय देते हैं। परिचय देते समय वे रामायण की समस्त प्रमुख घटनाओं की संक्षिप्त जानकारी‌ भी देते हैं। उसमें भी न तो सीता जी के वनवास की और न शम्बूक के वध की चर्चा तो क्या, उनका इशारा तक नहीं है। नारद जी जो अद्भुत जानकारी रखते हैं और वे घटनाओं का महत्व भी खूब समझते हैं, उऩ्होंने इस तथाकथित अत्यंत मह्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख ही‌ नहीं किया तब यह घटना रामायण में हो ही‌ नहीं सकती और साथ ही इसलिये भी कि यह रचयिता के मूल उद्देश्य का घोर विरोध करती‌ है। यह श्री राम की मूल मान्यताओं के, उनकी शिक्षा के, उनके अन्य समस्त कार्यों के विरोध में है। जो राम अत्यंत बुद्धिमान हैं, निरहंकारी हैं, सौतेली मां की इच्छा मानकर राज्य छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक वनगमन करते हैं, जो निस्वार्थी हैं, दुर्बलों की रक्षा के लिये, न्याय की रक्षा के लिये जो अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं, ऐसे राम इतने घोर और मूर्खतापूर्ण अन्याय करेंगे, असंभव है। सीता जी ने अपना आभूषण तो अपहरण के बहुत देर के बाद, जब उऩ्हें यह विचार आया होगा कि इसके बिना तो राम उऩ्हें खोज भी नहीं पाएंगे, फ़ेका होगा। उस वीरान घने जंगल में थोड़ी देर खोज करने के बाद पुरुषवादी, अहंकारी और संशय करने वाले राम तो सीता के अपहरण के पश्चात यह कहकर कि वनवास का एक वर्ष ही‌ बचा है, जो पंचवटी से अयोध्या तक लौटने के लिये अत्यंत आवश्यक है, सीता के अपहरण का तो नाम और निशान कोई नहीं मिला, लौटकर अयोध्या चले जाते, विशेषकर भरत को अग्नि समाधि से बचाने के लिये, तब उऩ्हें कोई भी दोष नहीं दे सकता था। किन्तु श्री राम ने ऐसा सोचा भी‌ नहीं और नारी को सम्मान दिलवाने के लिये सीता जी को खोजने जैसे उस असंभव कार्य को करने के लिये चल पड़े ।
वाल्मीकि रामायण के तृतीय सर्ग में‌ वाल्मीकि नारद जी से कथा सुनने के बाद उस पर मनन करते हैं और रामायण की योजना – सी बनाते हैं।(इसे भी कुछ विद्वान प्रक्षेपित मानते हैं।) उसमें सात काण्डों की सूची‌ ३९ श्लोकों में है। उसमें उत्तरकाण्ड का वर्णन मात्र डेढ़ श्लोक में‌ ही दिया गया है – अपनी प्रजा को प्रसन्न रखने के लिये सीता को वनवास देना, एवं इस पृथ्वी पर श्री राम का जो भी‌ भविष्य में कार्य होगा उसे भी लिखा ! अर्थात या तो पूरा तृतीय सर्ग प्रक्षेप है या यह डेढ़ श्लोक । चतुर्थ सर्ग के प्रथम श्लोक में लिखा है कि, ‘श्री राम ने जब राज्य का शासन हाथ में ले लिया, उसके बाद वाल्मीकि मुनि ने उनके सम्पूर्ण चरित्र के आधार पर विचित्र पद और अर्थों से युक्त रामायण काव्य का निर्माण किया’। किन्तु पहले श्लोक के बाद दूसरे के आधे श्लोक तथा तीसरे के पूरे श्लोक में लिखा, ‘ इसमें महर्षि ने २४ हजार श्लोक, ५ सौ सर्ग तथा ‘उत्तर’ सहित सात काण्डों का प्रतिपादन किया।’ यहां भी ‘उत्तर सहित’ पद दृष्टव्य है जो इंगित करता है कि यहां भी ‘उत्तर’ प्रक्षेप है, क्योंकि इसमें किसी‌ अन्य काण्ड का नाम नहीं है, केवल श्लोकों तथा सर्गों की संख्या बतलाई ग़ई है । और वैसे भी, जब वाल्मीकि नारद मुनि द्वारा बतलाई गई कथा पर चिन्तन मनन कर रहे थे तब यह एकदम नई घटना इस योजना में कैसे ! यह स्पष्ट है कि पूरा तृतीय सर्ग तथा चौथे सर्ग का प्रथम श्लोक बाद में चोरी से डालाअ गया है।
किन्तु एक बड़ी चूक उन राम के शत्रु साहित्यिक चोरों से हो गई कि वे नारद जी के वर्णन में प्रक्षेप डालना भूल गए । महाभारत जैसे विशाल महाकाव्य में‌ महर्षि व्यास जी ने भी रामायण के महत्व को समझते हुए इसकी मुख्य घटनाओं का वर्णन किया है और उनमें भी इन घटनाओं का उल्लेख नहीं है। तथा उन चतुर चोरों से एक चूक और हो गई – पूरी रामायण वर्तमान काल के रूप में लिखी गई, किन्तु उत्तरकाण्ड भूतकाल में लिखा गया है। एक और कारण से यह स्पष्ट ही प्रक्षेप है। प्रक्षेपित उत्तर काण्ड के अन्त में लिखा है,’उत्तर काण्ड सहित यहां तक यह आख्यान ब्रह्म पूजित है।’ इस कथन में ‘उत्तर काण्ड सहित’ लिखने के कारण संदेह होता है कि उत्तर काण्ड पर अनावश्यक बल दिया जा रहा है अत: ‘दाल में काला ‘ है। महाभारत काल के काफ़ी‌ बाद तक ‘श्री राम’ का विरोध करने वाला कोई नहीं‌ हुआ था। महाभारत (ईसा के ३००० वर्ष पूर्व) के बहुत समय बाद राजा भोज के समय में ‘चम्पू रामायण’ लिखा गया; इसमें‌ साररूप में राम कथा का वर्णन है, किन्तु उसमें‌ भी उत्तर कांड नहीं‌ है। अर्थात यह प्रक्षेप महाभारत काल के बहुत बाद, या कहें राजा भोज के बाद और कालिदास के पूर्व ही डाला गया है। यह प्रक्षेप किसने डाला एक गम्भीर शोध की‌ माँग करता है। किन्तु यह तो स्पष्ट है कि हमें शत्रु की‌ चाल में‌ नहीं आना चाहिये ।
अनेक विद्वान शम्बूक वध को उचित ठहराने के लिये ‘मनुस्मृति’ का सहारा लेते हैं; यह कहते हुए कि उसमें तो शूद्रों के लिये वेद श्रवण निषेध था, इतना कि यदि सुनता हुआ मिल जाए तो उसके कानों में पिघला सीसा डाला जाए । मनु स्मृति का स्रोत कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं‌ हैं, स्मृति का उद्देश्य वेदों उपनिषदों से नीति तथा जीवन मूल्यों और सामान्य व्यवहार संबन्धी ज्ञान लेना होता है। अर्थात उनके स्रोत वेद और उपनिषद ही‌ हैं, तब वे शूद्रों के साथ ऐसा घोर अन्याय कैसे कर सकते हैं। एक और भयंकर आरोप है कि मनुस्मृति में नारी की निंदा की गई है। मनु स्मृति में‌ नारी को पूज्या ही कहा है, और उसकी प्रशंसा भी अच्छी की गई है, जो वेदों तथा उपनिषदों से मेल खाती है, और नारियों की‌ निन्दा को वेद उपनिषद बिलकुल मान्यता नहीं देते । तब यदि शत्रुगण रामायण में, महाभारत में प्रक्षेप डाल सकते हैं, तब वे मनुस्मृति में‌ भी डाल सकते हैं। जिस मनुस्मृति में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:’ लिखा है उसमें नारी की मिंदा तो शत्रु ही प्रक्षेप डालकर कर सकता है, मनु नहीं। अभी कुछ दिन हुए, मनु स्मृति का बुंदेलखण्डी में (1902) अनुवाद, वह भी लोकप्रिय ‘आल्हा ऊदलीय’ छन्दों में, देखने (‘अनुवाद’ पत्रिका,अंक १४६) मिला। उसमें‌ भी ‘यत्र नार्यस्तु. . .” का तथा अन्य नारी प्रशंसात्मक छन्दों के बहुत ही सुन्दर अनुवाद मिले हैं, नारी‌ निंदा के नहीं !
तपस्यारत शम्बूक की‌ हत्या करने वाले राम वाल्मीकि का आदर्श तो नहीं हो सकते थे, हां हमारे शत्रु के आदर्श हो सकते हैं ताकि वह हमारे आदर्श राम की हत्या कर सके । तुलसीदास के समान श्रेष्ठ तथा अद्वितीय साहित्यकार ने इस शम्बूक वाली‌ क्रूर घटना को और सीता के वनवास वाली क्रूर घटना को रामचरित मानस में स्वीकार नहीं किया है। यह गीताप्रैस गोरखपुर प्रकाशित रामचरित मानस में देखा जा सकता है, उसमें जो उत्तर काण्ड है वह हिन्दू दर्शन से पूर्ण है। उसमें लवकुश काण्ड भी नहीं है। रामानन्द की टीवी प्रस्तुति में‌ भी इन घटनाओं को स्थान नहीं मिला है, उनके बाद ‘उत्तर रामायण’ अवश्य आया किन्तु उसमें रामानन्द जैसे विद्वान का हाथ नहीं है, अवश्य ही किसी लोभी व्यक्ति का हाथ है। कुछ अन्य प्रकाशक अज्ञानवश या द्वेषवश इन घटनाओं को रामचरित मानस में प्रकाशित करते हैं, या लोभवश टीवी‌ में दिखलाते हैं।
यद्यपि यह भी दृष्टव्य है कि उत्तरकाण्ड में अनेकानेक घटनाएं ऐसी‌ हैं जो ‘उत्तररामचरित’ में‌ नहीं हैं, और उतनी दक्षता से प्रस्तुत भी नहीं की गई हैं। वरन उसमें बीभत्स घटनाएं भी‌ हैं कि जैसे उसमें एक पुरुष श्रापवश अपनी ही‌ लाश का मांस स्वयं खाता है ! फ़ैन्टैसी की, कल्पना की ऊँची से ऊँची उड़ान उत्तरकाण्ड में मिलती‌ है। ऐसी रामायण लिखना तो वाल्मीकि का उद्देश्य ही नहीं था ! किन्तु असली दुर्भाग्य यह कि राम के शत्रुओं ने इसे एक नया काण्ड बनाकर, इसमें मिर्च मसाला मिलाकर वाल्मीकि रामायण में‌ डाल दिया, जिससे यह लोक में विश्वसनीय और आदरणीय बन गया ! मुख्य बात यह है कि यह प्रक्षेप यह झूठ हमारे आदर्शों को बिगाड़ता है, हमारे समाज को तोड़ता है। जहां जहां यह प्रक्षेप है, इसे वहां से हटाना ही चाहिये । उन दिनों जब मुद्रण के लिये प्रैस नहीं थे तब प्रक्षेप डालना बहुत आसान था, विशेषकर किसी‌ समृद्ध व्यक्ति के लिये; धन खर्च कर १०० – २०० प्रतियां लिखवाकर वितरण करवाना ही तो था।
प्रश्न उठता है कि हम इतने भोले भाले कैसे बन गए कि इतनी तर्क विरोधी, आदर्श विरोधी और असंगत बातें हम बिना विचार विमर्श के मान जाते हैं । शायद सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने हमारी विवेचना शक्ति को कुंठित कर दिया है। मुझे आशा है अब स्वतंत्रता प्राप्ति के ६४ वर्षों बाद हम तर्क संगत सोच विचार कर सकते हैं। अत: इसमें सन्देह नहीं होना चाहिये कि न तो श्री राम ने शम्बूक का वध किया और न सीताजी को वन में भेजा, और यह झूठा प्रक्षेप डालने वाला दुष्कृत्य निश्चित ही श्री राम के शत्रुओं का है। दुख की बात तो यह है कि गीता प्रैस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित रामायण भी इस प्रक्षेपित उत्तर काण्ड को प्रकाशित करती है। यह हमें ध्यान में रखना चाहिये कि उत्तरकाण्ड वाली दुष्ट कहानी वाल्मीकि की रामायण के बाद रचित महाभारत में नहीं है, तुलसीकृत रामचरित मानस में‌ नहीं है, इन दो महानतम ग्रन्थों में‌ नही‌ है, तब तो हमारे लिये उपरोक्त प्रमाणों की आवश्यकता ही‌ नहीं होना चाहिये किन्तु मैने आज के तर्क प्रिय पाठकों की सुवुधा के लिये उपरोक्त तर्क दिये हैं।
मैं कहना चाहता हूं कि जहां से भी यह आया हो, इस झूठे और षड़यंत्र प्रेरित झूठे प्रक्षेप को रामायण में से निकाला जाए, ताकि रामायण समस्त मानव समाज का हित निर्दोष रूप से तथा संशयरहित होकर कर सके।

सोत्र: राम ने न तो सीता जी को वनवास दिया और न शम्बूक का वध किया